________________ 302 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् नवमी दशा जायगी ऐसा दुष्ट विचार करता है, वह महा-मोहनीय की उपार्जना करता टीका-इस सूत्र में भी त्रस प्राणियों की हिंसा से उत्पन्न होने वाले महा-मोहनीय कर्म का ही वर्णन किया गया है अर्थात् त्रस प्राणियों की हिंसा से ही चतुर्थ महा-मोहनीय कर्म लगता है / जो व्यक्ति दुष्ट चित्त से किसी व्यक्ति को मारने के लिए उसके शिर पर खड्गादि से प्रहार करता है और उसके सब से प्रधान अङ्ग (शिर) को इस प्रकार फोड़ कर विदारण करता है या ग्रीवा-छेदन करता (गला काटता) है वह महा-मोहनीय कर्म की उपार्जना करता है / शरीर के सब अवयवों में शिर ही उत्तम (श्रेष्ठ) अङ्ग है / इसके ऊपर प्रहार होने से मृत्यु अवश्य हो जाती है / इसीलिए सूत्रकार ने 'उत्तमाङ्ग' विशेषण दिया है / मस्तक के द्वारा ही सारे धार्मिक और वैज्ञानिक कार्यों का विकास होता है / इसी से आश्रय और बुद्धि का विकास होता है / अतः बुरी भावना से किसी प्रकार भी मस्तक को क्षति पहुंचाना अत्यन्त घृणित और क्रूर कर्म है / जो व्यक्ति ऐसा करता है वह किसी प्रकार भी महा-मोहनीय कर्म के बन्धन में आने से नहीं बच सकता / हां, यदि किसी से अज्ञान में अकस्मात् ऐसा हो जाय तो वह इस (महा-मोहनीय) के बन्धन में नहीं आता / 'समवायाङग सत्र में इसको पञ्चम स्थान माना गया है / अब सूत्रकार पञ्चम स्थान के विषय में कहते हैं:सीसं वेढेण जे केइ आवेढेइ अभिक्खणं / तिव्वासुभ-समायारे महामोहं पकुव्वइ / / 5 / / शीर्षमावेष्टेन यः कश्चिदावेष्टयत्यभीक्ष्णम् / तीव्राशुभ-समाचारो महामोहं प्रकुरुते / / 5 / / पदार्थान्वयः-जे-जो केइ-कोई अभिक्खणं-बार-बार सीसं-शिर को वेढेण-गीले चाम से आवेढेइ-आवेष्टित करता है तिव्वासुभ-समायारे-अत्युत्कट अशुभ समाचार (आचरण) वाला वह महामोह-महा-मोहनीय कर्म की पकुव्वइ-उपार्जना करता है / ___मूलार्थ-जो कोई व्यक्ति किसी त्रस प्राणी के शिर आदि अंगों को गीले चमड़े से आवेष्टित करता है (बांधता है), वह इस प्रकार के