________________ 158 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् पंचमी दशा -- - - __ पदार्थान्वयः-ओरालियं-औदारिक बोंदि-शरीर को च-और नाम-गोयं-नाम-गोत्र कर्म को चिच्चा-छोड़कर आउयं-आयुष्कर्म च और वेयणिज्जं-वेदनीय कर्म को छित्ता-छेदन कर केवली-केवली भगवान् नीरए-कर्म-रज से रहित भवति-होता है / मूलार्थ-औदारिक शरीर को त्याग कर तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्मों का छेदन कर केवली भगवान् कर्म-रज से सर्वथा रहित हो जाता है / टीका-इस सूत्र में अन्तिम, दशवी, समाधि का वर्णन किया गया है / जैसे-जब अन्त्य समय आता है उस समय केवली भगवान् औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों को तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्मों को अपने आत्म-प्रदेशों से पृथक् कर, फलतः कर्म-रज से रहित होकर मोक्ष प्राप्त करता है और उससे फिर सादि अनन्त पद की प्राप्ति हो जाती है और वह पवित्रात्मा तब सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर, नित्य, शाश्वत आदि अनेक नामों से विभूषित होता है | किन्तु ध्यान रहे कि यह दश प्रकार की समाधि केवल धर्म-चिन्ता के ऊपर ही निर्भर है, अतः समाधि-इच्छुक व्यक्ति को सब से पहिले धर्म-चिन्ता ही करनी चाहिए / धर्म-चिन्ता या अनुप्रेक्षा ही एक प्रकार से मोक्ष-द्वार है / इसके द्वारा आत्मा अनादि काल के अनादि कर्म-बन्धन से छूटकर निर्वाण-पद प्राप्त करता है। . . अब सूत्रकार उक्त विषय का उपसंहार करते हुए प्रस्तुत दशा की समाप्ति करते हैं :एवं अभिसमागम्म चित्तमादाय आउसो / , सेणि-सुद्धिमुवागम्म आया सुद्धिमुवागई / / 17 / / त्ति बेमि / इति पंचमा दसा समत्ता / एवमभिसमागम्य चित्तमादाय, आयुष्मन् ! श्रेणि-शुद्धिमुपागम्य आत्मा शुद्धिमुपागच्छति / / 17 / / इति ब्रवीमि / इति पञ्चमी दशा समाप्ता /