________________ म 168 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् . षष्ठी दशा नास्तिक को केवल संसार-चक्र में ही भ्रमण नहीं करना पड़ता, अपितु अनेक प्रकार के दुःख भोगने के लिए दक्षिण-गामी नारकी भी बनना पड़ता है / उत्तर दिशा के नरकों की अपेक्षा दक्षिण दिशा के नरक अत्यन्त दुःख-प्रद हैं / वहां नारकी दुःख भोगने के साथ-साथ दुर्लभ-बोधि-भाव के कर्मों की उपार्जना भी करता है, अर्थात् किसी शुभ कर्म के उदय से यदि उसको मनुष्य योनि मिल भी जाये तो उसको धर्म-प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ होती है, अतः वह भविष्य में दुर्लभ-बोधी होता है, उसके पूर्व-जन्म के अशुभ कर्म उसको मोक्ष मार्ग की ओर जाने से रोकते हैं और फलतः वह उससे पराङग्मुख ही रहता है / इसी का नाम अक्रिया-वाद है / इस नास्तिक या अक्रिया-वाद के व्याख्यान से सूत्रकार का आशय इतना ही है कि उपासक को ध्यान रहे कि नास्तिक मत को मानने वाले की पूर्वोक्त दशा होती है, अतः अपनी कल्याण-कामना करने वाले व्यक्ति को इस नास्तिक-वाद का सर्वथा परित्याग करना चाहिए / क्योंकि इसमें अन्याय-शीलता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं और उसका परिणाम उभय-लोक में भयंकर है / / अब सूत्रकार आस्तिक-वाद का विषय कहते हैं: से किं तं किरिया-वाई यावि भवति? तं जहा-आहिया-वाई, आहिय-पन्ने, आहिय-दिट्ठी, सम्मा-वाई, निया-वाई, संति परलोग-वादी, अत्थि इह-लोगे, अत्थि परलोगे, अत्थि माया, अत्थि पिया, अत्थि अरिहंता, अत्थि चक्कवट्टी, अत्थि बलदेवा, अस्थि वासुदेवा, अस्थि सुक्कड-दुक्कडाणं कम्माणं फल-वित्ति-विसेसे, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवंति, सफले कल्लाण-पावए, पच्चायंति जीवा, अत्थि नेरइया, जाव अत्थि देवा, अत्थि सिद्धी, से एवं-वादी, एवं-पन्ने, एवं-दिट्टी-छंद-राग-मति-निविटे आवि भवति / /