________________ ना - पंचमी दशा हिन्दीभाषांटीकासहितम् / 40 यथा दग्धानां बीजानां न जायन्ते पुनरङ्कुराः / / कर्म-बीजेषु दग्धेषु न जायन्ते भवाङ्कुराः / / 15 / / पदार्थान्वयः-जहा-जैसे दड्ढाणं-जले हुए बीयाणं-बीजों से पुण-फिर अंकुरा-अंकुर न जायन्ति-उत्पन्न नहीं होते इसी प्रकार कम्म-बीएसु-कर्म-रूपी बीजों के दड्ढेसु-जल जाने पर भवंकुरा-भवरूपी अंकुर न जायंति-उत्पन्न नहीं होते / मूलार्थ-जैसे दग्ध बीजों से अङ्कुर उत्पन्न नहीं होते इसी प्रकार कर्म-बीजों के दग्ध हो जाने पर जन्म-मरण-रूपी अङ्कुर नहीं हो सकते। टीका-इस सूत्र में भी उपमा द्वारा प्रतिपादन किया गया है कि मुक्त आत्माओं का पुनर्जन्म नहीं होता / जिस प्रकार दग्ध बीजों से अंकुर नहीं होते इसी प्रकार कर्म-रूपी / बीजों के दग्ध होने पर भी जन्म-मरण-सम्बन्धी अङ्कुर उत्पन्न नहीं हो सकते / मोक्ष किसी कर्म विशेष का फल नहीं प्रत्युत कर्म-क्षय की ही मोक्ष संज्ञा होती है / कर्म ही एक कारण है जिससे आत्मा को पुनः पुनः संसार-चक्र में आना पड़ता है / यदि इस मूल कारण (कर्म) को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया जायगा तो आत्मा निज स्वरूप में प्रविष्ट होकर निःसन्देह निर्वाण-पद की प्राप्ति कर सकेगा / अतः सांसारिक सुख, दुःख, भय, चिंता आदि से छुटकारा पाने के लिए कर्म-बीजों के नाश के लिये सदैव प्रयत्न-शील होना चाहिए / इस सूत्र में-'ग्धेभ्यः बीजेभ्यः' पञ्चमी के स्थान पर 'दग्धानां बीजानां' षष्ठी का प्रयोग भी इस बात को सिद्ध करता है कि आत्मा स्वयं संसार-चक्र में फँसा हुआ नहीं है किन्तु कर्मों के फेर में आकर वह यहां फँस जाता है / अब सूत्रकार अन्तिम समाधि का विषय वर्णन करते हैं :चिच्चा ओरालियं बोंदि नाम-गोयं च केवली / आउयं वेयणिज्जं च छित्ता भवति नीरए / / 16 / / त्यक्त्वौदारिकं बोंदि नाम-गोत्रं च केवली / / आयुष्कं वेदनीयं च छित्त्वा भवति नीरजः / / 16 / /