________________ है पंचमी दशा . हिन्दीभाषाटीकासहितम् / यह जिज्ञासा हो सकती है कि "अवितर्क' शब्द का अर्थ क्या है ? समाधान में कहा जाता है कि 'तर्क' मीमांसा (विचारणा-संशय) को कहते हैं / जिसके चित्त में संशय के दूर हो जाने से दृढ़ विश्वास हो गया हो अथवा जिसके चित्त से ऐह-लौकिक (इस लोक से सम्बन्ध रखने वाली) और पार-लौकिक (पर-लोक से सम्बन्ध रखने वाली) वासनाएं नष्ट हो गई हों अर्थात् जिस आत्मा को उभय-लोक-सम्बन्धी सुखों की इच्छा नहीं उसी को 'अवितर्क' कहते हैं / अथवा शुक्ल-ध्यान के द्वितीय चरण का नाम 'अवितर्क है / उस ध्यान के करने वाला साधु 'अवितर्क' कहलाता है / 'अर्ध-मागधी-कोष' में इसका अर्थ निम्नलिखित व्युत्पत्ति से किया गया है : "अवितर्क-न विद्यते वितर्कोऽश्रद्धानक्रियाफलं देहरूपो यस्य भिक्षोः सोऽवितर्कः" अर्थात् कुतर्क-रहित साधु ‘अवितर्क' कहलाता है / अब सूत्रकार केवल-ज्ञान का विषय वर्णन करते हैं:जया से णाणावरणं सव्वं होई खयं गयं / तओ लोगमलोगं च जिणो जाणति केवली / / 8 / / यदा तस्य ज्ञानावरणं सर्वं भवति क्षयं गतम् / ततो लोकमलोकञ्च जिनो जानाति केवली / / 8 / / पदार्थान्वयः-जया-जिस समय से-उस मुनि का णाणावरणं-ज्ञानावरणीय कर्म सव्वं-सब प्रकार खयं गयं-क्षय-गत होइ-होता है तओ-उस समय लोग-लोक च-और अलोग-अलोक को जिणो-जिन भगवान् केवली-केवली होकर जाणति-जानता है / मूलार्थ-जिस समय मुनि का ज्ञानावरणीय कर्म सब प्रकार से क्षय-गत (नष्ट) हो जाता है, उस समय वह मुनि जिन भगवान् या केवली होकर लोक और अलोक को जानता है | टीका-इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि जिस पूर्वोक्त-गुण-सम्पन्न मुनि के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चारों घातक कर्म क्षय-गत हो जाते हैं, वह जिन भगवान् हो जाता है तथा केवल ज्ञान धारण करने के कारण उसकी 'केवली' संज्ञा हो जाती है, तब वह अपने ज्ञान से लोक और अलोक दोनों को जानने