________________ -- 1138 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् पंचमी दशा और चरित्र की समाधि प्राप्त करने वाले और समाधि के मूल कारण आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म-ध्यानादि से आत्मा की विशुद्धि करने वाले व्यक्तियों को पूर्व अनुत्पन्न निम्नलिखित दश चित्त-समाधि-स्थान उत्पन्न हो जाते हैं / प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'समिति' और गुप्ति में परस्पर क्या अन्तर है ? उत्तर में कहा जाता है कि योगों का निरोध करना गुप्ति कहलाती है / जैसे मनः समिति का तात्पर्य अकुशल मन की निवृत्ति और कुशल की प्रवृत्ति होता है, किन्तु मनोगुप्ति का अर्थ कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के मन का तथा सत्य-मनोयोग, असत्य-मनोयोग, मिश्र-मनोयोग और व्यवहार-मनोयोग-चार प्रकार के मनोयोगों का निरोध करना है / इसी प्रकार वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति के विषय में भी जानना चाहिए / ___"आय-जोइणं" इस शब्द में “णं” को पृथक् कर वाक्यालङ्कार अर्थ में माना जाय तो अवशिष्ट का 'आत्म-योगी' संस्कृतानुवाद होना, जिसका अर्थ अध्यात्मयोग-वृत्ति करने वाले तथा "आत्तायोगी" मन, वचन और काय को वश करने वाले होता है / यदि 'आत्मायोगी' इस प्रकार पाठ परिवर्तन किया जाय तो संयम व्यापार में श्रेष्ठ योगों को धारण करने वाले–यह अर्थ भी हो सकता है / सूत्र में आये हुए “पाक्षिक-पौषध" का निम्नलिखित तात्पर्य है,“पक्षे भवः पाक्षिकः / पक्षशब्देन पक्षसमाप्तिरिह विवक्षिता, पदैकदेशेऽपि पदस्य (पदसमुदायस्य च) उपचारात् / तेन पक्षपरिपूरकस्य पथ्यदनमित्यर्थः / पौषधः-उपवास करणम् / अथवा पौषध:-चतुर्दश्यष्टम्यौ-पाक्षिकः पौषध इति पाक्षिक-पौषधस्तस्मिन् / " अर्थात् पाक्षिक दिनों में उपवासादि करने वाले / उपलक्षण से श्रावकादि के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / __अब सूत्रकार दश चित्त-समाधि-स्थानों का नामाख्यान करते हैं: धम्म-चिंता वा से असमुप्पण्ण-पुव्वा समुप्पज्जेज्जा सव्वं धम्मं जाणित्तए; सुमिण-दंसणे वा से असमुप्पण्ण-पुव्वे समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए, सण्णि-जाइ-सरणेणं सण्णि-ण्णाणं वा से असमुप्पण्ण-पुव्वे समुप्पज्जेज्जा अप्पणो पोराणियं जाइं सुमरित्तए; देव-दंसणे वा से असमुप्पण्ण-पुव्वे