________________ ___पंचमी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / 1455 ___मूलार्थ-राग और द्वेष से रहित चित्त धारण करने से आत्मा धर्म-ध्यानादि की प्राप्ति करता है और शङ्का-रहित धर्म में स्थित हुआ निर्वाण-पद की प्राप्ति करता है / टीका-गद्य में संक्षेप रूप से दश समाधि-स्थानों का वर्णन कर अब सूत्रकार पद्यों से उनका विस्तृत वर्णन करते हैं / इस सूत्र में प्रथम स्थान का वर्णन किया गया है / जिसके चित्त में राग-द्वेष नहीं तथा जिसका चित्त कषाय और कालुष्य के परिणाम के अभाव से निर्मल और स्वच्छ है, वही आत्मा ध्यान की प्राप्ति कर सकता है तथा सर्ववृत्ति-रूप और देश-वृत्ति-रूप धर्म में असन्दिग्ध भाव से स्थित होकर निर्वाण-पद की प्राप्ति कर लेता है / अतः समाधि के लिए ओजः-राग द्वेष रहित चित्त से ही प्रवृत्त होना चाहिए / अब सूत्रकार जाति-स्मरण-ज्ञान के विषय में कहते हैं:ण इमं चित्तं समादाय भुज्जो लोयंसि जायइ / अप्पणो उत्तमं ठाणं सन्नि-णाणेण जाणइ / / 2 / / नेदं चित्तं समादाय भूयो लोके जायते / आत्मन उत्तमं स्थानं संज्ञि-ज्ञानेन जानाति / / 2 / / पदार्थान्वयः-इमं-इस प्रकार चित्तं-चित्त को समादाय-धारण कर वह भुज्जो-पुनः पुनः लोयंसि-लोक में ण जायइ-उत्पन्न नहीं होता किन्तु अप्पणो-अपने उत्तम-उत्तम ठाणं-स्थान को सन्नि-णाणेण-संज्ञि-ज्ञान से जाणइ-जानता है / - मूलार्थ-इस प्रकार के चित्त को धारण कर आत्मा पुनः-पुनः लोक में उत्पन्न नहीं होता और अपने उत्तम स्थान को संज्ञि-ज्ञान से जान लेता है / टीका-जाति-स्मरण-रूप चित्त को धारण कर फिर आत्मा त्रस और स्थावर लोक में उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उक्त ज्ञान की सहायता से एक तो वह अपने पूर्व जन्मों को-जो संज्ञिरूप में हो चुके हैं-जानता है और दूसरे में अपना कर्तृत्व-भाव तथा भोग-कृत्व-भाव भी भली प्रकार जान लेता है / re