________________ है 128 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् चतुर्थी दशा करते हुए, किसी पक्ष विशेष को ग्रहण न करते हुए, मध्यस्थ-भाव अवलम्बन करे और सम्यग् व्यवहार का पालन करते हुए, उस कलह के क्षमापन और उपशमन के लिए सदैव उद्यत रहे, क्योंकि ऐसा करने से सहधर्मियों में अल्प शब्द होंगे, अल्प झञ्झा (व्याकुलता और कलह उत्पन्न करने वाले शब्द) होगी, अल्प कलह और अल्प कषाय होंगे तथा अल्प 'तू' 'तू' होगी, इन सबके अल्प होने पर संयम, संवर और समाधि की वृद्धि होगी और इससे सहधर्मी अप्रमत्त होकर संयम और तप के द्वारा अपने आत्मा की भावना करते हुए विचरण करेंगे / यही भार-प्रत्यवरोहणता-विनय है / यही वह स्थविर भगवन्तों ने आठ प्रकार की गणि-सम्पदा प्रतिपादन की है, इस प्रकार मैं कहता हूँ / . टीका-इस सूत्र में भार-प्रत्यवरोहणता-विनय का वर्णन करते हुए, साथ ही साथ, प्रस्तुत दशा का उपसंहार भी किया गया है | जिस प्रकार एक राजा अपना सम्पूर्ण राज्य भार मन्त्रि-गण के ऊपर छोड़ कर स्वयं राज्य-सुख का अनुभव करता है ठीक उसी प्रकार गणी भी गण-रक्षा का सम्पूर्ण भार शिष्य-गण को सौंपकर अपने आप निश्चिन्त होकर आत्म-समाधि के सुख में लीन हो जाता है / यह भार चार प्रकार का होता है / उनमें सबसे पहला असंग्रहीत शिष्यादि का संग्रह करना है, अर्थात यदि किसी शिष्य को क्रोधादि दुर्गुणों के कारण शिष्य-गण ने पृथक कर दिया हो, या किसी शिष्य के संरक्षक, गुरू आदि का देहान्त हो गया हो अथवा किसी अन्य विशेष कारण से वह गृहस्थ बनना चाहता हो तो उसको जिस तरह हो सके समझा बुझा कर अपने पास रखना चाहिए / किञ्च-जो साधु नूतन दीक्षित हों उनको ज्ञानाचारादिं आचार-विधि और भिक्षाचरी तथा प्रत्युपेक्षणा विधि प्रेम-पूर्वक सिखानी चाहिए / जो सहधर्मी साधु रुग्ण हो गया हो उसकी यथाशक्ति उचित सेवा करनी चाहिए / यदि कभी सहधर्मियों में परस्पर कलह उत्पन्न हो जाये तो 'अनिश्रितापश्रोता' अर्थात् राग द्वेष का परित्याग कर, निश्रिता (आहार या उपधि की इच्छा), कुलिङ्गी तथा उपाश्रा आदि भावों से रहित होकर, निश्रिता (आहार या उपधि की इच्छा), रागद्वेष आदि भावों से रहित होकर, केवल मध्यस्थ-भाव का अवलम्बन करते हुए सम्यक् सूत्र व्यवहारादि के अनुसार उस कलह के क्षमापन और उपशमन के लिए सदैव उद्यत रहना चाहिए / इससे कलह की शान्ति होगी और गण में निरर्थक कोलाहल