________________ X 36 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् द्वितीया दशा मूलार्थ-मैथुन सेवन करते हुए शबल दोष लगता है / टीका-पूर्व सत्र में हस्त-मैथुन का वर्णन किया गया है, इस सूत्र में मैथुन से होने वाले शबल दोष का वर्णन करते हैं / सदैव विषय-आसक्त व्यक्ति को भी पूर्वीक्त सारे रोग उत्पन्न हो जाते हैं / मानसिक मैथुन के विचारों से वीर्य के परमाणुओं का नाश करना आत्मा को शक्ति-हीन बनाता है / इसी तरह सदैव विषय-वासना में लिप्त रहने से मन की सारी शक्तियाँ विकसित होने के स्थान पर मुरझा जाती हैं और धीरे-२ मन्द पड़ जाती हैं / अतः मैथुन का विचार तक न करना चाहिये / जैसे पहिले कहा जा चुका है शबल-दोष अतिक्रम, व्यक्तिक्रम और अतिचार तक ही माना जाता है, ऐसे ही यहां पर भी मैथुन-देव, मानुष और तिर्यक-सम्बन्धि-अतिक्रम, व्यक्तिक्रम और अतिचार द्वारा सेवन किया हुआ ही शबल-दोष-आधायक (करने वाला) होता; किन्तु यदि अनाचार से मैथुन सेवन किया जाय तो सर्वथा व्रत भङ्ग होता है / इसी बात को स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं: “एवं मैथुनं-दिव्यमानुषतिर्यग्योनिसम्बन्धि अतिक्रमव्यतिक्रमातिचारैः सेव्यमानः शबलःअनाचारेण तु सर्वथा भङ्ग इत्यादि / 'समवायांग सूत्र' के 21 वें समवाय में शबल दोषों की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं: "मैथुनं प्रति-सेवमानोऽतिक्रमादिभिस्त्रिभिः प्रकारैः अर्थात् अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार द्वारा किया हुआ मैथुन शबल दोष युक्त होता है और यदि अनाचार द्वारा सेवन किया जाए तो सर्वथ व्रतभङ्ग कहलाता है; क्योंकि शरीर से ही जब मैथुन कर लिया तो व्रत-भङ्ग होना निर्विवाद है / इसके अतिरिक्त मैथुन से आत्म-विराधना और संयम-विराधना होना तो प्रत्यक्ष ही है; क्योंकि उन्माद या राजयक्ष्मादि होने से आत्म-विराधना होती है और स्त्री योनि में असंख्य समूर्छिम जीवों के नाश होने से संयम-विराधना होती है / उत्कृष्ट नवलक्ष जीव योनि में उत्पन्न होते हैं, पुरुष-संग से उन जीवों की विराधना अवश्य होती है / अतः सिद्ध हुआ कि यह कर्म सर्वथा त्याज्य है /