________________ 0000 .. तृतीय दशा. हिन्दीभाषाटीकासहितम् / से पहिले गुरू को दिखावे और फिर दूसरों को / ऐसा करने से ही सभ्यता और विनय-धर्म की सम्यक् पालना हो सकती है / कुछ प्रतियों में 'उवदंसेइ' के स्थान पर 'पडिदंसेइ' पाठ मिलता है जिसका अर्थ “पुनः पुनः दिखाना है। अब सूत्रकार आहार-निमन्त्रण के विषय की आशातना कहते हैं:___ सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता तं पुव्वमेव सेहतरागं उवणिमंतेइ पच्छा रायणिए आसायणा सेहस्स / / 16 / / शैक्षोऽशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिम वा प्रतिगृह्य तत्पूर्वमेव शैक्षतरकमुपनिमन्त्रयति. पश्चाद् रानिकस्याशातना शैक्षस्य / / 16 / / . पदार्थान्वयः-सेहे-शिष्य असणं-अशन वा-अथवा पाणं-पानी वा-अथवा खाइम-खादिम वा-अथवा साइम-स्वादिम को पडिगाहित्ता-लेकर तं-उस आहार को पुव्वमेव-पहिले सेहतराग-शिष्य को उवणिमंतेइ-निमन्त्रण करता है पच्छा-पीछे रायणिए-रत्नाकर को तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना होती है। * मूलार्थ-शिष्य अशन, पानी, खादिम और स्वादिम को लेकर उपाश्रय में वापिस आए और आनीत आहार से यदि शिष्य को पहिले और गुरू को तदनन्तर निमन्त्रित करे तो उस (शिष्य) को आशातना लगती है | टीका-इस में प्रकाश किया गया है कि जब शिष्य आहार लेकर उपाश्रय में आवे तो उसको उचित है कि सब से पहिले रत्नाकर को निमन्त्रित करे | यदि वह रत्नाकर से पहले ही किसी शिष्य को निमन्त्रित करे तो उसको आशातना लगती है, क्योंकि क्रम-भङ्ग होने से विनय-भङ्ग होना अनिवार्य है / अतः रत्नाकर या गुरू को उसका उचित भाग समर्पण करने के अनन्तर ही शिष्यों का भाग उनको दे / और शिष्यों को भी उचित है कि परस्पर प्रेम वृद्धि के लिए उपलब्ध भाग का अवशिष्ट साधुओं के साथ मिलकर प्रेमपूर्वक भोजन करें /