________________ 106 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् चतुर्थी दशा करता है अणिस्सियं धरेइ-अनिश्रित रूप से धारण करता है असंदिद्ध धरेइ-सन्देह रहित होकर धारण करता है से तं-यही धारणा-मइ-संपया-धारणा-मति-सम्पत् है / मूलार्थ हे भगवन् ! मति-सम्पदा किसे कहते हैं? हे शिष्य ! मति-सम्पदा चार प्रकार की प्रतिपादन की है | जैसे-अवग्रह-मति-सम्पदा, ईहा-मति-सम्पदा, अवाय-मति-सम्पदा और धारणा-मति-सम्पदा / हे भगवन् ! अवग्रह-मति-सम्पदा कौन सी है? हे शिष्य ! अवग्रह-मति-सम्पदा छः प्रकार की प्रतिपादन की गई है, जैसे-प्रश्न आदि को शीघ्र ग्रहण करता है, निश्राय रहित होकर ग्रहण करता है और सन्देह रहित होकर ग्रहण करता है / इसी प्रकार ईहा-मति और अवाय-मति के विषय में भी जानना चाहिए | धारणा मति सम्पदा किसे कहते हैं ? धारणा मति सम्पदा छ: प्रकार की है। जैसे-बहुत धारण करता है, अनेक प्रकार से धारण करता है, पुरानी बात धारण करता है, कठिन से कठिन बात को धारण करता है, अनिश्रित रूप से धारण करता है और सन्देह रहित होकर धारण करता है / इसी का नाम धारणा-मति-सम्पदा है। टीका-इस सूत्र में मति ज्ञान की सम्पदा का विषय वर्णन किया गया है-“मननं, मत्याः सम्पदा-मति-सम्पदा जो मनन किया जाये उसको मति कहते हैं और मति की सम्पदा मति-सम्पदा हुई / यह मति-सम्पदा चार प्रकार की वर्णन की गई है जैसे-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा | बिना किसी निर्देश के सामान्य रूप से जो ग्रहण किया जाता है उसको 'अवग्रह' कहते हैं / सामान्य रूप से ग्रहण किये हुए पदार्थ का जो विशिष्ट ज्ञान होता है उसको 'ईहा' कहते हैं / ईहा-विशिष्ट ज्ञान से जो पदार्थों का निश्चयात्मक ज्ञान होता है उसको 'अवाय' कहते हैं / पदार्थों के निश्चयात्मक ज्ञान का स्मरण रखना 'धारणा' कहलाती है / यही मति-ज्ञान का क्रम है / जैसे कोई किसी सुषुप्त (सोए हुए) व्यक्ति को जगाता है तो जगाने वाले के शब्द के, श्रोत्रेन्द्रिय को स्पर्श करते हुए, परमाणु अवग्रह रूप होते हैं; इसके अनन्तर जब शब्द श्रोत्रेन्द्रियय में प्रवेश करता है तो वही परमाणु विशिष्ट रूप होकर ईहा-मति कहलाते हैं; तब उसको (सोए हुए व्यक्ति को) ज्ञान होता है कि कोई मुझे जगा रहा है और धीरे-धीरे निश्चय कर लेता है कि अमुक