________________ है प्रथम दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / ___टीका-- इस सूत्र में वर्णन किया गया हे कि पिशुन (पीठ पीछे निन्दा करने वाला) व्यक्ति कभी भी समाधि प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि निन्दक अपने गुणों का नाश कर दूसरों के गुणों को आच्छादन करता (छिपाता) है / अन्तःकरण के शुद्ध न होने से निन्दक समाधि की प्राप्ति नहीं कर सकता / इसके अतिरिक्त निन्दा के अन्य सब दोष जगत्प्रसिद्ध हैं, इसलिए किसी की निन्दा नहीं करती चाहिए / __ सूत्र में वर्णित “पृष्ठ-मासिकःव्यक्ति की भद्र जनों के साथ समता भी लज्जाजनक है / पृष्ठमासिकः (पीठ का मांस खाने वाला) अर्थात् (पराङ्मुखस्य परस्यावर्णवादकारी) अनुपस्थित व्यक्ति के लिए निन्दाजनक शब्दों का प्रयोग करने वाला / निन्दा से सम्बन्ध रखना भी अनुचित है / अतः उसका सर्वथा त्याग कर समाधि चाहने वाले पुरुष को समाधि-स्थ होना चाहिए / किसी 2 पुस्तक में (“पिट्ठि-मंसिए यावि भवइ”-पृष्ठ-मांसिकश्चापि भवति) इस प्रकार पाठ भेद भी मिलता है / इस पाठ में “च” और “अपि” इन दोनों शब्दों का तात्पर्य सब तरह की चुगली व निन्दा-वाचक शब्दों से है क्योंकि ये सब समाधि स्थानों के प्रतिबन्धक हैं / अतः प्रत्येक समाधि-इच्छुक को उचित है कि निन्दादि दुर्गुणों का छोड़कर समाधि स्थानों की वृद्धि करे / यहां शङ्का यह हो सकती है कि जिस व्यक्ति में यथार्थ में दोष हैं उनको प्रकट करने में क्या दोष है ? उत्तर में कहा जाता है कि उक्त व्यक्ति को हित-बुद्धि से दोष परित्याग की शिक्षा देनी उचित है न कि उसके दोषों को द्वेष बुद्धि से जनता पर प्रकट कर उससे द्वेष बढ़ाना / समाधि चाहने वाले व्यक्तियों को इसलिए भी निन्दादि से दूर रहना चाहिए कि उनका कर्तव्य तो मौनावलम्बन कर अपने स्वरूप में प्रविष्ट होना तथा सत्योपदेश करना है / इसके अतिरिक्त दूसरों की निन्दा व अवगुणों का वर्णन करना उनका कर्तव्य नहीं / सूत्रकार ने इस असमाधि का वर्णन इसलिए किया है कि इससे सहज ही में आत्म-विराधना व संयम-विराधना होने की सम्भावना है, जिस का परिणाम दोनों लोकों दुःख-प्रद है / अतः दूसरों की निन्दा करना छोड़कर केवल आत्म-दोषों का अवलोकन करे (और उनके त्यागने का प्रयत्न करे) / अपने दोषों को जनता पर प्रकट करने से आत्मा समाधि प्राप्त कर सकता है; क्योंकि ऐसा करने से आत्मा के कषायादि दोष शान्त हो जाएँगे और