________________ 000 प्रथम दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / “दशाश्रुतस्कन्धसूत्र” में इन दोनों स्थानों को "संजलणे, कोहणे" || 8 || एक ही स्थान कहा गया है / 'समवायाङ्ग सूत्र' में 'पिट्ठि-मंसिए' यह दशवां स्थान प्रतिपादन किया गया है, किन्तु ‘दशाश्रुतस्कन्धसूत्र' में "पिट्ठिमंसिए यावि भवइ इस प्रकार ६वां स्थान ही कहा गया है / 'समवायाङ्ग सूत्र' में “ससरक्ख-पाणि-पाए” यह १६वां स्थान है, किन्तु ‘दशाश्रुतस्कन्धसूत्र' में “अकाले सज्झाकारि-यावि भवइ” इस स्थान के आगे “ससरक्ख-पाणि-पाए” स्थान लिखा गया है और 'समवायङ्ग सूत्र' में "अकाल-सज्झाय-कारए यावि भवइ यह 16 वें स्थान में प्रतिपादन किया गया है / 'समवायाङ्ग सूत्र' में "कलहकरे” 16 वां स्थान और दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में १७वां स्थान प्रतिपादन किया गया है / “दशाश्रुतस्कन्धसूत्र” में पूर्व अङ्क की न्यूनता पूर्ति के लिये “असमाहि-कारए” 'असमाधि-कारकः प्रतिपादन किया गया है / तथा 'दशाश्रुतस्कन्धसूत्र' की किसी 2 प्रति में “असमाहि-कारए" इसके स्थान पर “भेयकरे पाठ भी मिलता है, किन्तु इससे केवल शब्द-भेद ही होता है अर्थ में कोई भेद नहीं पड़ता / अतः बुद्धिमान व्यक्तियों को उचित है कि इन अंकों को विचारपूर्वक स्मरण रखते हुए असमाधि-स्थानों को दूर कर समाधि-स्थानों की प्राप्ति करें; जिससे आत्म-शुद्धि हो जाने से आत्मा को निर्वाण-पद की प्राप्ति हो सके / * समाधि ही मोक्ष पद देने वाली है न कि असमाधि, इसलिए मोक्ष की इच्छा करने वाले को समाधिस्थ होना चाहिए / अब सूत्रकार अध्ययन की समाप्ति करते हुए लिखते हैं : एते खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं बीसं असमाहिठाणा पण्णत्ता-त्ति बेमि / / 21 / / ___ इति पढमा दसा समत्ता / / - एतानि खलु तानि स्थविरैर्भगवद्भिविंशत्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि". इति ब्रवीमि / / 21 / / - इति प्रथमा दशा समाप्ता / / पदार्थान्वयः-एते-ये खलु-निश्चय से ते-वे थेरेहि-स्थविर भगवंतेहिं-भगवन्तों ने बीस-बीस असमाहि-असमाधि के ठाणा-स्थान पण्णत्ता-प्रतिपादन किये हैं / ति-इस प्रकार बेमिं-मैं कहता हूं / / इति-इस तरह पढमा-पहला दसा-अध्ययन समत्ता-समाप्त हुआ /