Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 16
________________ दत्त और मूलदेव उज्जैनी नगरी में विक्रमशूर नाम का राजा राज्य करता था। उस का मूलदेव नाम का मित्र था । वह बडा चतुर था। वह अविवाहित था। राजा ने उसे विवाह करने का आग्रह किया तो उसने का के चरित्र पर विश्वास नहीं है । साथ ही विवाहित पुरुष स्त्रियों का गुलाम बन जाता है । उसकी स्वतंत्रता छीन जाती है । उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है । इस पर राजा ने कहा - स्त्रियों के बारे में ऐसा मत कहो । क्योंकि त्रि वर्ग की सिद्धि स्त्रियों से ही होती है । स्त्री सौख्य का घर है । श्रेष्ठ कीर्ति का कारण है और वंशवृद्धि की आधारशिला है । समस्त आश्रम की बीजभूत है । महिला के बिना पुत्र नहीं मिलता और पुत्र के बिना व्यक्ति का उद्धार नहीं होता । इस प्रकार बहुत समझाने पर मूलदेव विवाह के लिए राजी हुआ। उसने राजा से कहा - राजन् ! यदि आपका आग्रह ही है तो मैं किसी जन्मान्ध कन्या के साथ ही विवाह करूंगा। राजा ने खोज कर एक रूपवती जन्मान्ध कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया। दोनों सुखपूर्वक रहने लगे । अपनी पत्नी जन्मान्ध होते हुए भी वह उस पर विश्वास नहीं करता था । जब वह राज सेवा के लिए बाहर जाता तो उसके परे अंग का निरीक्षण करता था और वापस घर लौटने पर उसके अंग प्रत्यंग को बड़ी सूक्ष्मता से देखता था कि कही मेरी गैरहाजरी में इसने अन्य पुरुष के साथ रमण तो नहीं किया ? एक बार जन्मान्ध कन्या की सखी ने दत्त नामक श्रेष्ठी के रूप गुण की प्रशंसा की । दत्त शेठ की प्रशंसा सुन वह उस पर आसक्त हो गई । वह दत्त के विरह में व्याकुल रहने लगी । एक दिन सखी से दत्त श्रेष्ठी से मिलने की इच्छा व्यक्त की। अवसर पा कर सखी दत्त श्रेष्ठी के घर पहुंची और जन्मान्ध स्त्री के रूप गुण की प्रशंसा कर उसे मिलने का आग्रह करने लगी । स्त्री को जन्मान्ध जान कर उसने उसको अपमानित कर उसे घर से निकाल दिया । जन्मान्ध स्त्री दत्त श्रेष्ठी के विरह में अत्यन्त व्याकुल रहने लगी । वह किसी भी तरह से सेठ से मिलने के लिये अत्यन्त उत्कंठित थी। बार बार सेठ को आग्रह करने पर भी सेठ ने जन्मान्ध स्त्री की बात पर ध्यान नहीं दिया । जन्मान्ध स्त्री ने सेठ के विरह में खान पान भी छोड़ दिया । अपनी स्त्री को क्षीण देहा देखकर मूलदेव ने उसे पूछा - प्रिये ! क्या कारण है कि तुम सदैव दुखी रहती हो और तुम्हारा शरीर भी अत्यन्त क्षीण होता जा रहा है ? उसने कहा - प्राणनाथ ! मैं अपने दःख को व्य नहीं कर सकती । मेरे लिए तो सारा संसार ही अन्धकारमय है । आपके स्नेह को तो मैं जान सकती हूँ किन्तु आपके रूप को देख नहीं सकती । मूलदेव ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा – प्रिये ! मैं शीघ्र ही तुम्हारे दुःख को दूर कर दूंगा। ___ मूलदेव ने विन्ध्यवासिनी देवी की आराधना की और देवी को प्रसन्न कर अपनी पत्नी के लिए आंखे मांगी। देवी ने प्रसन्न हो कर जन्मान्ध स्त्री को चक्ष प्रदान किये । देवी के वरदान से जन्मान्ध स्त्री अपने पति को एवं संसार को देखने लगी। ___ एक दिन उसे पुनः दत्तश्रेष्ठी याद आया । सखी के द्वारा उसने दत्तश्रेष्ठी को अपने घर बुलाया और उसके साथ भोग विलास कर अपनी इच्छा पूर्ण की । दत्तश्रेष्ठी के चले जाने के बाद मूलदेव घर पहुंचा तो उसने अपनी स्त्री के वस्त्र अस्तव्यस्त देखे । उसने उसके शरीर का निरीक्षण किया तो उसे लगा कि इसने अवश्य पर पुरुष के साथ भोग किया है । अपनी स्त्री के चरित्र से वह अत्यन्त दुखी हुआ। अपने घर की बात न अन्य को कह सकता था न मन में रख सकता था। इस द्विधाभरी स्थिति में वह रात के समय घर से निकला और राजा की हाथी शाला में पहुंचा । वहां उसने विक्रमशूर राजा की रानी चेला के साथ रतिक्रीडा करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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