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चाणक्यसूत्राणि
छूट देते रहते हैं। ऐसी अवस्थामें लोकमतका कर्तव्य हो जाता है कि सत्यहीन व्यक्तिको राजा न रहने दें तथा सत्यहीन राजकर्मचारीको उसके पदसे हटाकर माने ।
राज्यसत्ताके दुष्टनिग्रह, शिष्टपालन तथा सुशासन ये तीन काम हैं। ये तीन काम न करनेवाली नीतिहीन राज्यसत्ता या राजाकी संपत्तियें शीघ्र नष्ट हो जाती हैं।
द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सो बिलशयानिव ।
अरक्षितारं राजानं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ ( विदुर ) बिल के निवासी चूहे मादि जन्तुओं को खाजानेवाले सांपके समान भूमि भी अरक्षक राजा तथा गुणसंग्रह के लिये प्रवास न करनेवाले ब्राह्मण, इन दोनों को प्रप लेती हैं।
पाठान्तर- ‘अविनीतस्वामिभावादस्वामिलामः श्रेयान् ।' स्वामीके अविनीत होने से स्वामिहीन रहना श्रेष्ठ है।
सम्पाद्यात्मानमन्विच्छेत् सहायवान् ॥१५॥ राजा अपनेको राजोचित गुणोंसे सम्पन्न बनाकर अपने ही जैसे गुणो सहायकों या सहधर्मियोंको साथ रखकर राजभार लेना चाहे।
विवरण- जब राजा या राज्याधिकारी पहले अपने आपको अपनी इन्द्रियों को तथा मनको नीति, सत्य, विनय आदि शासकोचित गुणों से सम्पन्न बना लें (जब वे सर्व प्रकारके कलुषित आचरणोंसे अतीत रहनेका सुदृढ निश्चय कर लें ) तब ही राज्य संस्था में हाथ लगायें और तब भी योग्य गुणो साधि. योंको साथ लेकर उसमें जाना चाहें । राज्यसंस्थामें एकतन्त्रता एकछत्रता या निर्बाध भोगसुखके मूढ सपने न देखें | वे अपने आपको बुद्धिमान सदाचारी व्यवहारकुशल मन्त्री, पुरोहित, भमास्य,भृत्य आदि हितैषियोंकी सदिच्छाओंका अनुयायी बनाये रखकर ही सुख समृद्धि चाहें और सहायक