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वैक खरतरगच्छ, तपगच्छ, अंचलगच्छादिसर्व गच्छवालोंके शास्त्र वा क्योंका संग्रह इस ग्रंथ में करनेमें आया है । मगर अमुक गच्छवाले के अमुक आचार्य के वाक्य हमको मंजूर नहीं, ऐसा एकांत आग्रह किसी जगहभी करने में नहीं आया. और शास्त्रविरुद्ध व युक्ति बाधित वाक्य तो किसी गच्छवाले काभी मान्य करना योग्य नहीं. यह बात सर्व जन सम्मतही है, वोही न्याय इस ग्रंथ में रख्खा गया है. इसलिये पाठकगणकोभी किसी गच्छ समुदायका पक्षपात न रखकर अवश्य ही इस ग्रंथको संपूर्ण अवलोकन करके सार निकालना चाहिये.
इस ग्रंथ का लेखक मैं खास संसारीपने में तपगच्छका वीसापोरवाल श्रावकथा, मगर उपाध्याय जी श्री सुमतिसागरजी महाराजके पास श्रीसिद्धक्षेत्र (पालीताणा ) में विक्रम संवत् १९६० वैशाख शुदी २ को ख - रतरगच्छ में दीक्षा अंगीकार की, तो भी दोनों गच्छोंके पूर्वाचार्योपर तथा वर्तमानिक मुनिमहाराजोंपर पूज्यभाव था, और है भी । मगर जिस २ अंश में शास्त्र विरुद्ध होकर परंपरा के बहाने जिल२बातों का झु ठाही आग्रह किया गया है, उन बातोंकी आलोचना करके शास्त्रानुसार सत्य बातें जनसमाज में प्रकट करनी, यह मैंरा खास कर्तव्यही समझ कर मैंने इस ग्रंथ में इतना लिखा है । इसमें किसीको पक्षपात न समज ना चाहिये. और किसीको नाराज होनेकाभी कोई कारण नही हैं । वर्तमानिक समयके अनुसार परंपराकी अंधरूढीको त्यागना और सत्यको ग्रहण करना, सब सज्जनोंको प्रिय है । और समय बदलता जाता है, तथा संपसे शासनोन्नति के कार्य करने की बहुत जरुरत है, इसलिये कुसुंप बढानेवाला पर्युषणाके व्याख्यानमें आपसका खंडन मंडन चलाना योग्य नहीं है. विशेष दूसरे, तीसरे और चौथे भाग में अनुक्रम से लिखने में आवेगा ।
क्षमा याचना तथा अपनी भूल स्वीकार.
इस ग्रंथ की रचना करते समय मैरी अल्पवय व अल्प अभ्यास होनेसे, इसग्रंथ में लेखक दोष, भाषादोष, दृष्टिदोष, पुनरुक्ति दोष, प्रेसदोष व शास्त्रीय पाठोंकी विशेष अशुद्धताके दोषोंकी पाठक गण अवश्यही क्षमा करेंगे, तथा हंसकी तरह दोष त्यागकर सत्य २ सार अहण करेंगे, और सुधारकर वांचेगे। दूसरी आवृत्ति में इन सर्व दोषोंका संशोधन अच्छी तरह से करनेमें आवेगा.
और सुबोधिका, दीपिका तथा किरणावली आदिकमै शास्त्रविरुद्ध जो जो बातें लिखी हैं, उन्हीं सर्व बातोंका निर्णय इस ग्रंथ में लिखा
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