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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
के
अनुसार दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के अभाव में आचरण सम्यक् नहीं होता है और सम्यक् आचरण के अभाव में मुक्ति भी नहीं होती है। इस प्रकार मुक्ति की प्राप्ति के लिए तीनों ही अंगों का होना आवश्यक है।
सम्यक् दर्शन का अर्थ
जैन आगमों में दर्शन शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है और इसके अर्थ के सम्बन्ध में जैन परम्परा में काफी विवाद रहा है। दर्शन शब्द को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ भी लिया गया है। प्राचीन जैनागमों में दर्शन शब्द के स्थान पर दृष्टि शब्द का प्रयोग उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। उत्तराध्ययनसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन शब्द का अर्थ तत्त्वश्रद्धा भी माना गया है २१ । परवर्ती जैन साहित्य में दर्शन शब्द को देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा या भक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त किया गया। इस प्रकार जैन परम्परा में सम्यक् दर्शन-आत्म-साक्षात्कार तत्त्व श्रद्धा, अन्तर्बोध, दृष्टिकोण, श्रद्धा और भक्ति आदि अनेक अर्थों को अपने में समेटे हुए है।
सम्यग्दर्शन' को चाहे यधार्थ दृष्टि कहें या तत्त्वार्थं श्रद्धा उसमें वास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है। अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है, किन्तु दूसरा वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है। यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे ने उसे श्रद्धा के माध्यम से श्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ स्वानुभूति ही है और यही सम्यग्दर्शन का वास्तविक अर्थ है। ऐसा सम्यग्दर्शन होता है निर्विकार, निराकुल चित्तवृत्ति से। अतः प्रकारान्तर से वह भी सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।
सम्यक्दर्शन के पाँच लक्षण
जैनधर्म में सम्यक् दर्शन के निम्न पाँच लक्षण बताये गये हैं:
१. सम् अर्थात् समभाव २. संवेग अर्थात् आत्मा के आनंदमय स्वरूप की अनुभूति अथवा सत्याभीप्सा, ३. निर्वेद अर्थात् अनासक्ति या वैराग्य, ४. अनुकम्पा अर्थात् दूसरे व्यक्ति को पीड़ा को आत्मवत् पीड़ा समझना और उसके प्रति करुणा का भाव रखना और ५. आस्तिक्य अर्थात् पुण्य-पाप, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना।
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सम्यक् दर्शन के छह स्थान
जिस प्रकार बौद्ध साधना के अनुसार दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख निवृत्ति हो सकती है और दुःखनिवृत्ति का मार्ग है। इन चार आर्य सत्यों की स्वीकृति सम्यग्दृष्टि है, उसी प्रकार जैनसाधना के अनुसार षट् स्थानकों (छह बातों) की स्वीकृति सम्यक्दर्शन है- (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है और (६) मुक्ति का उपाय (मार्ग) है २२ ।
जैन तत्त्व - विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है। दृष्टिकोण की विशुद्धता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर हैं; ये षट्स्थानक जैन साधना के केन्द्र बिन्दु हैं ।
सम्यक्- ज्ञान का अर्थ
दृष्टिकोण की विशुद्धि पर ही ज्ञान की सम्यक्ता निर्भर करती है। अतः जैन साधना का दूसरा चरण हैं सम्यक् ज्ञान। सम्यक्ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन-सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं। सामान्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान वस्तुतत्त्व का उसके अनन्त पहलुओं से युक्त ज्ञान है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन दर्शन के अनुसार एकांगीज्ञान मिथ्यात्व है, क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। जब तक आग्रह बुद्धि है, तब तक वीतरागता सम्भव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असम्भव है। जैन दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक् ज्ञान की अनिवार्य शर्त है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है। अतः एकान्त और आग्रह सत्य के साक्षात्कार में बाधक हैं जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके माध्यम से प्राप्त ज्ञान की सम्यक् ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान का अर्थ है वस्तु को उसके अनन्त पहलुओं से जानना ।
जैनधर्म में एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान आत्म-अनात्म का विवेक है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता, बनाया जा सकता, उसे ज्ञाता ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता क्योंकि वह स्वयं ज्ञान स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी शेय नहीं बन सकता, अतः आत्मज्ञान दुरूह है। लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और शेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं। सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या है ? और इससे वह यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं वे
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