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सत्य का अनुसंधान करता है। शुभ प्रतीकों का आलम्बन, उन पर चित्त के स्थिरीकरण को ज्ञानी जनों के द्वारा ध्यान कहा गया है । १४६
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होते है । मानसिक भावना की श्रेष्ठता को महत्त्व दिया गया है १३५ । विमल विचारों के पुनः-पुनः चित्त में आते रहने से संस्कार सुदृढ़ होते हैं । सतत् भावना ही ध्यान का रूप ग्रहण करती है। भावना दो प्रकार की है - १. ऊर्ध्वमुखी (शुभ भावना) और २ अधोमुखी (अशुभ भावना)। अशुभ भावना चारित्र को दूषित करती है। इसके कारण जीव अनादि काल से इस संसार में भ्रमण कर रहा है शुभ भावना साधक को अध्यात्म एवं मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने में सहायता देती है। १३० सामायिक- सामायिक का अर्थ है समस्त सावद्य (पापकारी प्रवृत्तियों का विसर्जन । पापों का अपनयन ही समत्व का चरम शिखर है । समत्व से साधना का प्रारम्भ होता है। पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझ कर उनके प्रति उपेक्षा धारण करना समता है । समत्व की साधना से कषायों के बन्धन ढीले होते हैं, वीतरागभाव प्रकट होता है। सर्वज्ञों ने सामायिक को मोक्ष का अंग कहा है ।११९ सामायिक से अन्य साधना में चित्त कुछ समय के लिये ही कल्याणकारी होता है, लेकिन सामयिक में तो चित्त पूर्ण शुद्ध होने से सदैव कल्याणकारी होता है । १४० मन, वचन एवं काया तीनों योगों के शुद्ध रूप होने से सर्वथा पाप रहित हैं । १४९ ज्ञान, तप, चारित्र के होने से ही सामायिक की विशुद्धि होती है, सामायिक केवल ज्ञान प्राप्ति का साधन है ।१४२ वीतरागंभाव की सिद्धि के लिये समभाव की साधना जरुरी है, समभाव की सिद्धि के लिये संयम जरुरी है। संयम का अर्थ है पाँच व्रतों की साधना । समता आ जाने पर योगी की वृत्ति में एक ऐसा वैशिष्ट्य आ जाता है कि वह प्राप्त ऋद्धियों और विभूतियों का प्रयोग नहीं करता, उसके सूक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है और उसकी आशाओं तथा आकांक्षाओं के तन्तु टूटने लगते हैं । १४३
तत्त्वार्थसूत्र में एकाग्रचिन्तन एवं मन, वचन, काया के योगों के निरोध को ध्यान कहा गया है । १४५ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है। कि एक आलम्बन पर मन को स्थिर करने से चित्त का निरोध होता। १४० आचार्य हरिभद्र के अनुसार ध्यान से आत्म-नियंत्रण, अक्षुण्ण प्रभावशीलता, मानसिक स्थिरता तथा भव परम्परा का उच्छेद होता है । १४८ ध्रुव स्मृति ही एकाग्रता एवं ध्यान है। जब एक ही वस्तु पर स्मृति निरन्तर स्थिर रहती है, तो वह एकाग्रता बन जाती है। चेतना की यह निरन्तरता या एकाग्रता ही ध्यान है। ध्यान की प्राप्ति के लिये चार भावनाओं (ज्ञान-भावना, दर्शन-भावना, चारित्र - भावना और वैराग्यभावना) का अभ्यास आवश्यक है । १४९ ध्यान करने का अर्थ केवल श्वास- प्रेक्षा या शरीर प्रेक्षा ही नहीं है। ध्यान आलम्बनों के सहारे रागद्वेष मुक्त-क्षण में जीना है। ध्यान की सिद्धि के लिये चार बातें आवश्यक मानी गई हैं- सद्गुरु का उपदेश, श्रद्धा, निरन्तर अभ्यास और स्थिर मन ।
आचार्य हरिभद्र कहते हैं, जैसे वन्दन अपने को काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धित बना देता है वैसे ही जो व्यक्ति विरोधी के प्रति समभावरूपी सुगन्ध फैलाता है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है। १४४ सामयिक में साधक नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता और आत्मस्वरूप में अव्यवस्थित रहने के कारण जो पूर्व बद्ध कर्म रहे हुये हैं उनकी भी निर्जरा कर देता है। सामायिक की विशुद्ध साधना से जीवघाती कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
ध्यान- ध्यान, तप और भावना ये तीनों शक्ति के स्रोत हैं इनके द्वारा वीतरागता उपलब्ध होती है। योग सिद्धि के लिये चंचल इन्द्रियों का निग्रह करके मन में एकाग्रता लाना आवश्यक है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है। इसीलिये भारतीय मनीषियों ने ध्यान को सर्वोपरि माना है। राग-द्वेष की प्रवृत्तियां ही मन को अस्थिर करती हैं, इसलिये इन दोनों का निरोध चित्तवृत्ति की स्थिरता के लिये आवश्यक है। मन को केन्द्रित करने के लिये मनीषियों ने ध्यान का विधान किया है। योगी ध्यान की साधना द्वारा चित्त को एकाग्र कर, चेतना की असीम गहराइयों से उत्तरता हुआ, आध्यात्मिक
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ध्यान चित्त की एकाग्रता है और अष्टांग योग के सभी अंगों में महत्त्वपूर्ण है। ध्यान से कर्मों का क्षय शीघ्रता से होता है। ध्यान से निपन्न होने वाली एकाग्रता से आध्यात्मिक विकास में अभूतपूर्व प्रगति होती है।१५० ध्यान के चार भेद कहे गये हैं १५१-
१. आर्तध्यान चेतना की प्रिय या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा गया है। अर्तिध्यान से कर्मों का क्षय नहीं होता, अपितु कर्मों का बन्धन बढ़ता है और कर्मों का बन्धन बढ़ने से संसार की वृद्धि होती है।
२. रौद्रध्यान अतिशय क्रूर भावनाओं तथा प्रवृत्तियों से संश्लिष्ट ध्यान रौद्रध्यान कहा जाता है । यह ध्यान भी अशुद्ध और अप्रशस्त है। रौद्रध्यान संसार की वृद्धि करने वाला और नरक गति की ओर ले जाने वाला है ।
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३. धर्मध्यान - जिससे धर्म का परिज्ञान हो उसे धर्म ध्यान कहा जाता है। इसे शुभ ध्यान कहा गया है। धर्म ध्यान की अनुभूति आंतरिक है। व्यक्ति स्वयं इसको अनुभव करने लगता है। उसका शील स्वभाव भी बदल जाता है। मैत्री की भावना जागृत होती है, माध्यस्थ भाव प्रकट होता है और मूर्छा घट जाती है।
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४. शुक्लध्यान जिस साधक की विषय वासनायें और कषाय नष्ट हो जाते हैं और चित्त वृत्ति निर्मल हो जाती है उसे शुक्ल ध्यान की उपलब्धि होती है। शुक्ल ध्यान की यह उपलब्धि ही हरिभद्र की दृष्टि में हमारी योग साधना की चरम परिणति है क्योंकि यह मोक्ष का अन्यतम कारण है।
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