________________
जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य- एक तुलनात्मक अध्ययन
आचार्य देवेन्द्रमुनि शास्त्री
भारतीय संस्कृति विश्व की एक महान् संस्कृति है । यह हो सकता है, पर यहाँ हम बहुत ही संक्षेप में कुछ प्रमुख बातों पर ही संस्कृति सरिता की सरस धारा की तरह सदा जन-जीवन में प्रवाहित चिन्तन करेंगे। होती रही है । इस संस्कृति का चिन्तन जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीन यह सत्य है कि बौद्ध और जैन संस्कृति, ये दोनों ही श्रमण धाराओं से प्रभावित रहा है। यहाँ की संस्कृति और सभ्यता का रमणीय संकृति की ही धाराएँ हैं । तथागत बुद्ध, बौद्ध संस्कृति के आद्य कल्पवृक्ष इन तीनों परम्पराओं के आधार पर ही सदा फलता-फूलता रहा संस्थापक थे तो जैन संस्कृति के आद्य संस्थापक भगवान् ऋषभदेव थे है। इन तीनों ही परम्पराओं में अत्यधिक सन्निकटता न भी रही हो तथापि जो जैन दृष्टि से प्रथम तीर्थंकर थे। भगवान् महावीर उन्हीं तीर्थंकरों की अत्यन्त दुरी भी नहीं थी। तीनों ही परम्पराओं के साधकों ने साधना कर परम्परा में चौबीसवें तीर्थंकर थे। तथागत बुद्ध और तीर्थंकर महावीर ये जो गहन अनुभूतियाँ प्राप्त की, उनमें अनेक अनुभूतियाँ समान थीं और दोनों एक ही समय में उत्पन्न हुए और दोनों का प्रचार स्थल बिहार रहा । अनेक अनुभूतियाँ असमान थीं। कुछ अनुभूतियों का परस्पर विनिमय दोनों मानवतावादी धर्म के थे। दोनों ने ही जातिवाद को महत्त्व न देकर भी हुआ । एक-दूसरे के चिन्तन पर एक-दूसरे का प्रतिबिम्ब गिरना आंतरिक विशुद्धि पर बल दिया। भगवान् महावीर के पावन-प्रवचन स्वाभाविक था किन्तु कौन किसका कितना ऋणी है यह कहना बहुत गणिपिटक (जैन आगम) के रूप में विश्रुत हैं तो बुद्ध के प्रवचनों का ही कठिन है। सत्य की जो सहज अभिव्यक्ति सभी में है उसे ही हम संकलन त्रिपिटक (बौद्धागम) के रूप में प्रसिद्ध है। दोनों ही परम्पराओं यहाँ पर तुलनात्मक अध्ययन की अभिधा प्रदान कर रहे हैं । सत्य एक में शास्त्र के अर्थ में 'पिटक' शब्द व्यवहत हुआ है । वह ज्ञान-मंजूषा है, अनन्त है, उसकी तुलना किसी के साथ नहीं हो सकती तथापि गणि अर्थात् आचार्यों के लिए थी। इसीलिए वह गणिपिटक के नाम अनुभूति की अभिव्यक्ति जिन शब्दों के माध्यम से हुई है, उन शब्दों और से प्रसिद्ध हुई । यद्यपि “गणि" शब्द जैन परम्परा में अनेक स्थलों पर अर्थ में जो साम्य है उसकी हम यहाँ पर तुलना कर रहे हैं जिससे यह व्यवहृत हुआ है तो बौद्ध परम्परा में संयुक्तनिकाय, दीघनिकाय, परिज्ञात हो सके कि लोग सम्प्रदायवाद, पंथवाद के नाम पर जो रागद्वेष सुत्तनिकाय आदि में भी उसका प्रयोग प्राप्त होता है। की अभिवृद्धि कर भेद-भाव की दीवार खड़ी करना चाहते हैं वह कहाँ दोनों ही परम्पराओं का जब हम तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन तक उचित है । जो लोग धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं करते हैं। करते हैं तो स्पष्ट परिज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं में विषय,शब्दों उनका दृष्टिकोण बहुत ही संकीर्ण और दुराग्रहपूर्ण बन जाता है । दुराग्रह उक्तियों एवं कथानकों की दृष्टि से अत्यधिक साम्य है। इस साम्य का और संकीर्ण-दृष्टि की परिसमाप्ति हेतु धार्मिक साहित्य का तुलनात्मक मूल आधार यह हो सकता है कि कभी ये दोनों परम्पराएँ एक रही हों अध्ययन बहुत ही आवश्यक है ।
और उन दिनों का मूल स्रोत एक ही स्थल से प्रभावित हुआ हो। आगम गंभीर अध्ययन व चिन्तन के अभाव में कुछ विज्ञों ने जैन धर्म और त्रिपिटक साहित्य के एक-एक विषय को लेकर यदि तुलनात्मक को वैदिक धर्म की शाखा माना किन्तु पाश्चात्य विद्वान् डॉ० हर्मन अध्ययन प्रस्तुत किया जाए तो अनेक नये तथ्य आसानी से उजागर हो जेकोबी, प्रभृति अनेक मूर्धन्य मनीषी उस अभिमत का निरसन कर चुके सकते हैं, किन्तु विस्तार-भय से हम यहाँ संक्षेप में ही कुछ प्रमुख बातों हैं। प्राप्त सामग्री के आधार से हम भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि श्रमण पर चिन्तन करेगें । शेष विषयों पर कभी अवकाश के क्षणों में चिन्तन संस्कृति वैदिक संस्कृति से उद्भूत नहीं है । यह प्रारम्भ से ही एक किया जायगा। स्वतन्त्र धारा रही है। हमारी दृष्टि से वैदिक और श्रमण धाराओं में जन्य- जहाँ तब आगम और त्रिपिटक साहित्य का प्रश्न है वहाँ तक जनक के पौर्वापर्य की अन्वेषणा करने की अपेक्षा उनके स्वतन्त्र दोनों ही परम्पराएँ जन-साधारण की भाषा को अपनाती रही हैं । त्रिपिटक अस्तित्त्व और विकास की अन्वेषणा करना अधिक लाभप्रद है। साहित्य की भाषा पालि रही है तो जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी
वैदिक संस्कृति का साहित्य बहुत ही विशाल है । वेद, प्राकृत रही है। दोनों ही महापुरुषों ने जन-जन के कल्याणर्थ उपदेश उपनिषद्, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता, भागवत, मनुस्मृति आदि के रूप प्रदान किये । में शताधिक ग्रन्थ हैं और हजारों विषयों पर चर्चाएँ की गई हैं। भाषा ब्राह्मण दार्शनिक मीमांसकों ने वेद को सनातन मानकर उसे की दृष्टि से यह सम्पूर्ण साहित्य संस्कृत में निर्मित है। जैन आगम अपौरुषेय कहा है। नैयायिक-वैशेषिक आदि दार्शनिक उसे ईश्वर प्रणीत साहित्य में आये हुए एक-एक विषय या गाथाओं की तुलना यदि कहते हैं। दोनों का मन्तव्य है कि वेद की रचना का समय अज्ञात है। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य के साथ की जाय तो एक विराट्काय ग्रन्थ तैयार इसके विपरीत बौद्ध त्रिपिटक और जैन गणिपिटक पौरुषेय है । ये
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org