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मेघसन्देश - विषयक अन्य काव्य को निष्प्रभ करने वाला यह काव्य यावच्चन्द्र विद्यमान रहे । और, राजा अमोघवर्ष सदा जगद्रक्षक बने रहें । यहाँ 'देव: अमोघवर्ष: शब्द मेघ का वाचक भी है। इस पक्ष में इसका अर्थ होगा 'सफलवृष्टि करने वाला मेघ' ।
दूसरे श्लोक का अर्थ है - श्रीवीरसेनमुनि के पद पंकज पर मँडराने वाले भृंग-स्वरूप श्रेष्ठ श्रीमान् विनयसेन मुनि की प्रेरणा से मुनिश्रेष्ठ जिनसेन ने 'मेघदूत' को परिवेष्टित करके इस 'पार्श्वाभ्युदय' काव्य की रचना की ।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
पूर्वोक्त महामुनि आचार्य वीरसेन विनयसेन और जिनसेन नामक मुनिपुंगवों के गुरु थे । विनयसेन की प्रार्थना पर ही आचार्य जिनसेन ने कालिदास के समग्र 'मेघदूत' को समस्यापूर्ति के द्वारा आवेष्टित कर पार्श्वाभ्युदय की रचना की। चार सर्गों में पल्लवित इस काव्य में कुल ३६४ (प्रथम: ११८; द्वितीय : ११८; तृतीय : ५७; चतुर्थ ७१) श्लोक हैं। इसका प्रत्येक श्लोक 'मेघदूत' के क्रम से, श्लोक के चतुर्थांश या अद्धांश को समस्या के रूप में लेकर पूरा किया गया है । समस्यापूर्ति का आवेष्टन तीन रूपों में रखा गया है : १. पादवेष्टित, २. अर्धवेष्टित और अन्तरितावेष्टित । अन्तरितावेष्टित में भी एकान्तरित और इयन्तरित ये दो प्रकार है।
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द्रष्टव्य है ।
प्रथम पादवेष्टित' में चतुर्थ चरण में 'मेघदूत' के किसी श्लोक का कोई एक चरण रखा गया है और 'अर्धवेष्टित' में 'मेघदूत' के द्वितीय तृतीय चरणों का विन्यास हुआ है।
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के किसी श्लोक के दो चरणों का विनियोग तृतीय चतुर्थ चरणों के रूप में किया गया है और फिर 'अन्तरितावेष्टित' में, 'मेघदूत' के श्लोकों को 'पार्श्वाभ्युदय' के जिस श्लोक में प्रथम और चतुर्थ चरण के रूप में रखा गया है, उसकी संज्ञा 'द्वयन्तरितार्थवेष्टित' है तथा जिस श्लोक में प्रथम और तृतीय चरण के रूप में रखा गया है, उसकी संज्ञा 'एकान्तरित' है । इस प्रकार की व्यवस्था का ध्यातव्य वैशिष्ट्य यह है कि 'मेघदूत' के उद्धत चरणों के प्रचलित अर्थ को विद्वान् कवि आचार्य जिनसेन ने
पादवेष्टित :
श्रीमन्मूर्त्या मरकतमयस्तम्भलक्ष्मीं वहन्त्या योगैकाग्रयस्तिमिततरया तस्थिवांसं निदध्यौ । पार्श्व दैत्यो नभसि विहरन्बद्धवैरेण दग्धः 'कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वधिकारात्प्रमत्तः ।।' (सर्ग १ श्लोक १)
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एकान्तरितावेष्टित
'उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्यवीणां, गाढोत्कण्ठं करुणविरुतं विप्रलापायमानम् । 'मद्गोत्राङ्क विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा त्वामुद्दिश्य प्रचलदलकं मूर्च्छनां भावयन्ती ।। (सर्ग ३ श्लो० ३८)
अपने स्वतन्त्र कथानक के प्रसंग से जोड़ने में विस्मयकारी विलक्षणता के द्वितीय चतुर्थ चरणों का विनियोग | हुआ 숨 का परिचय दिया है ।
पादवेष्टित का द्वितीय प्रकार
यहाँ समस्या पूर्ति के उक्त प्रकारों का एक एक उदाहरण
अर्धवेष्टित
शिखरनिपतन्निर्झराराबहुये
शैले ।
रम्योत्सङ्गे पर्यारूढगुमपरिगतोपत्येक तत्र 'विश्रान्तः सन्ब्रज वनदीतीरजानां निषिञ्चनवजलकणैर्वृधिकाजालकानि ।।' (सर्ग १: शलो० १०९)
शुद्यानानां
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द्वयन्तरितार्थवेष्टित : 'आलोके ते निपतति पुरा सा बलिव्याकुला वा' त्वत्सम्प्राप्तयै विहित नियमान्देवताभ्यो भजन्तः । बुद्धवारूढं चिरपरिचितं त्वद्गतं ज्ञातपूर्व मत्सादस्य विरहतनु वा भावेगव्यं लिखन्ती ।।' (सर्ग ३ श्लो० ३६) द्वयन्तरितार्थवेष्टित का द्वितीय प्रकार :
अन्तस्तापं प्रापिशुनयता स्वं कवोध्ोन भूयो 'निःश्वासेनाधर किसलयक्लेशिना विक्षिपन्तीम् । शुद्धस्नानात्परुसमलकं नूनमागण्डलम्ब' विश्लिष्टं वा हरिणचरितं लाम्छनं तन्मुखेन्दोः । । (सर्ग ३ श्लोक ४६ ) इस श्लोक के द्वितीय तृतीय चरणों में 'मेघदूत' के श्लोक
एकान्तरितावेष्टित का द्वितीय प्रकार : चित्रन्यस्तामिव सवपुषं मन्मथी यावस्था'माधिक्षामां विरहशयने सन्निषण्णैकपार्श्वाम् ।' तापापास्त्यै हृदयनिहितां हारयष्टिं दधाना 'प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशो : ।।' (सर्ग ३ श्लो० ४४) इस श्लोक के द्वितीय चतुर्थ चरणों में 'मेघदूत' के श्लोक
'मामाकाशप्रणिहित भुजं निर्दयाश्लेषहेतो- ' रून्तिष्ठासुं त्वदुपगमन प्रत्ययात्स्वप्नजातात् । सख्यो दृष्ट्वा सकरुणमृदुव्यावहासिं दधानाः कामोन्मुग्धाः स्मरयितु महो संम्रयन्ते विबुद्धान् ।। (सर्ग ४: श्लो० ३६) के श्लोक का है।
इस श्लोक में प्रथम चरण 'मेघदूत' इसलिए इसकी आख्या पूर्वार्ध पादवेष्टित है। पादवेष्टित का तृतीय प्रकार निद्रासङ्गादुपहितरतेर्गाढमाश्लेष वृन्ते 'र्लब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्नसंदर्शनेषु ।' विश्लेषस्स्याद्विहितरुदितैराधिजैराशुकोधैः कामोऽयं घटयतितरां विप्रलम्भावतारम् ।।
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(सर्ग 4 श्लो० 37 )
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