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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ बिन्दुओं को उजागर करने का प्रयत्न है।
आगे चलकर ऐसे धार्मिक प्रचारकों की एक स्थान पर राजा के समक्ष
अपने-अपने मतों की परीक्षा भी प्रचलित हो गई थी। धार्मिक दृष्टि भाषा और लिपि :
से ज्ञाताधर्मकथा में वैदिक परम्परा में प्रचलित श्रीकृष्ण कथा का भी इस ग्रन्थ में प्रमुख रूप से अर्धमागधी प्राकृत का प्रयोग विस्तार से वर्णन हआ है। श्रीकृष्ण, पाण्डव, द्रौपदी, आदि पात्रों के हुआ है। किन्तु साथ ही अन्य प्राकृतों के तत्त्व भी इसमें उपलब्ध हैं। संस्कारित जीवन के अनेक प्रसंग वर्णित हैं। इस ग्रन्थ में पहली बार देशी शब्दों का प्रयोग इस ग्रन्थ की भाषा को समृद्ध बनाता है। इस श्रीकृष्ण के नरसिंहरूप का वर्णन है१०, जबकि वैदिक ग्रन्थों में ग्रन्थ में प्रस्तुत कथाओं के माध्यम से यह तथ्य भी सामने आता है विष्ण का नरसिंहावतार प्रचलित है। कि प्राचीन समय में सम्पन्न और संस्कारित व्यक्ति के लिए बहुभाषा विद् होना गौरव की बात होती थी। मेघकुमार को विविध प्रकार की समाज सेवा और पर्यावरण संरक्षण : अठारह देशी भाषाओं का विशारद कहा गया है। ये अठारह देशी इस ग्रन्थ के धार्मिक वातारण में भी समाज सेवा और भाषाएं कौन-सी थीं, इस बात का ज्ञान आठवीं शताब्दी के प्राकृत पर्यावरण-सरंक्षण के प्रति सम्पन्न परिवारों का रुझान देखने को ग्रन्थ कुवलयमाला के विवरणरहोता है।५ यद्यपि अठारह लिपियों के मिलता है। राजगह के निवासी नन्द मणिकार द्वारा एक ऐसी वापी का नाम विभिन्न प्राकृत ग्रन्थों में प्राप्त हो जाते हैं।६ इन लिपियों के निर्माण कराया गया था जो समाज के सामान्य वर्ग के लिए सभी सम्बन्ध में आगम प्रभाकर पुण्यविजयजी म.का यह अभिमत था कि प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराती थी। वर्तमान युग में जैसे इनमें अनेकों नाम कल्पित हैं। इन लिपियों के सम्बन्ध में अभी तक सम्पन्न लोग शहर से दूर वाड़ी का निर्माण कराते हैं उसी कि यह कोई प्राचीन शिलालेख भी उपलब्ध नहीं हुआ है, इससे भी यह पुष्करणी वापिका थी। उसके चारों ओर मनोरंजन पार्क थे। उनमें प्रतीत होता है कि ये सभी लिपियां प्राचीन समय में ही लुप्त हो गई, विभिन्न कलादीर्घाएं और मनोरंजनशालाएं थीं। राहगीरों और रोगियों या इन लिपियों का स्थान ब्राह्मीलिपि ने ले लिया होगा। कुवलयमाला के लिए चिकित्सा-केन्द्र भी थे। ११ इस प्रकार का विवरण भले ही में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, धार्मिक दृष्टि से आसक्ति का कारण रहा हो, किन्तु समाज सेवा और सिन्धु, मरु, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताजिक), पर्यावरण-संरक्षण के लिए प्रेरक था। " कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है। ज्ञाताधर्मकथा में प्राप्त इस प्रकार के सांस्कृतिक विवरण
ह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किये तत्कालीन उन्नत समाज के परिचायक हैं। इनसे विभिन्न प्रकार के हैं। डाँ०ए० मास्टर का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में औडू वैज्ञानिक प्रयोगों का भी पता चलता है। चिकित्सा के क्षेत्र में सोलह
और द्राविडी भाषएँ मिला देने से अठारह भाषाएँ, हो जाती हैं, जो प्रमुख महारोगों और उनकी चिकित्सा के विवरण आयुर्वेद के क्षेत्र में देशी हैं।
नई जानकारी देते हैं। कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं जहां इस प्रकार के तेलों
के निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन है जो सैकड़ों जड़ी-बूटियों के प्रयोग कला और धर्म :
से निर्मित होते थे। उनमें हजारों स्वर्णमद्राएँ खर्च होती थीं। ऐसे ज्ञाताधर्मकथा में विभिन्न कलाओं के नामों का उल्लेख भी शतपाक एवं सहस्त्रपाक तेलों का उल्लेख इस ग्रन्थ में है। इसी ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। ७२ कलाओं का यहाँ उल्लेख है, जिसकी परम्परा के बारहवें अध्ययन में जलशुद्धि की प्रक्रिया का भी वर्णन उपलब्ध परवर्ती प्राकृत ग्रन्थों में भी प्राप्त हैं। इन कलाओं में से अनेक है जो गटर के अशुद्ध जल को साफ कर शुद्ध जल में परिवर्तित कलाओं का व्यवहारिक प्रयोग भी इस ग्रन्थ के विभिन्न वर्णनों में करती है।१२ यह प्रयोग इस बात भी प्रतीक है कि संसार में कोई प्राप्त होता है। मल्लि की कथा में उत्कृष्ट चित्रकला का विवरण प्राप्त वस्तु या व्यक्ति सर्वथा अशुभ नहीं है, घृणा का पात्र नहीं है। है। चित्रशालाओं के उपयोग भी समाज में प्रचलित थे। ज्ञाताधर्मकथा यद्यपि धर्म और दर्शन-प्रधान ग्रन्थ है। इसमें विभिन्न धार्मिक सिद्धान्तों व्यापार एवं भूगोल :
और दर्शनिक मतों का विवेचन भी है। समाज में अनेक मतों को प्राचीन भारत में व्यापार एवं वाणिज्य उन्नत अवस्था में मानने वाले धार्मिक प्रचारक होते थे, जो व्यापारियों के साथ विभिन्न थे। देशी एवं विदेशी दोनों प्रकार के व्यापारों में साहसी, वणिक पत्र स्थानों की यात्रा कर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते थे। धन्य उत्साहपूर्वक अपना योगदान करते थे। ज्ञाताधर्मकथा में इस प्रकार के सार्थवाह की समुद्रयात्रा के समय अनेक परिव्राजक उसके साथ गये अनेक प्रसंग वर्णित हैं। समुद्रयात्रा द्वारा व्यापार करना उस समय थे। यद्यपि इन परिव्राजिकों के नाम एवं पहचान आदि अन्य ग्रन्थों से प्रतिष्ठा समझी जाती थी। सम्पन्न व्यापारी अपने साथ पूंजी देकर उन प्राप्त होती है। ब्राह्मण और श्रमण जैसे धार्मिक सन्त उनमें प्रमुख थे। निर्धन व्यापारियों को भी साथ में ले जाते थे, जो व्यापार में कुशल
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