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बाद बप्पभट्टसूरि ने स्तूप की मरम्मत कराई। यह कार्य ८वीं सदी के मध्य में पूरा हुआ। इसके बाद ११वीं शती तक जैनधर्म के प्रसिद्ध केन्द्र के रूप में इस टीले का महत्व रहा।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
जैन- वास्तु के विन्यास का स्वरूप लगभग वही था, जो बौद्ध स्तूपों का था। उदाहरण के लिए जैनस्तूप के मध्य में बुदबुदाकार बड़ा और ऊँचा ढूहा होता था और उसके चारों ओर वेदिका और चारों दिशाओं में चार तोरण होते थे। उसके ऊपर भी हर्मिका और छत्रावली का विधान रहता था, वह भी वेदिकासहित त्रिमेधियों पर बनाया जाता था। उसके चार पार्श्वो में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लगाई जाती थीं। स्तूप की रचना में अनेक भाँति की मूर्तियों और वेदिका के स्तम्भों पर शालभंजिका मूर्तियों की रचना की जाती थी। वेदिका का निर्माण वास्तु विन्यास का उत्कृष्ट कर्म था। उसमें ऊर्ध्वं स्तम्भ, आड़ी सूचियाँ, उष्णीष, आलंबन, तोरण, पार्श्वस्तंभ, धार्मिक चिन्ह और आयागपट्ट संज्ञक उत्कीर्ण शिलापट्ट तोरण द्वारों के मुखपट्ट पुष्पग्रहणी वेदिकाएँ, सोपान एवं ध्वजस्तम्भ आदि विविध शिल्पसामग्री लगाई जाती थी ।
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पूर्व गुप्तकालीन गुफाओं में सोनभंडार की गुफा महत्त्वपूर्ण है। वैभारगिरि की तलहटी में स्थित इस गुफा में प्रथम या द्वितीय सदी ई०का लेख है। लेख में गुफाओं के निर्मात्ता वैरदेव को मुनि कहा गया है। मुनिशब्द का प्रयोग जैन साधुओं के लिए आता है।" वैभारगिरि में ही एक खंडित जैनमन्दिर के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। मध्यकालीन अन्य जैन गुहा मन्दिरों में बादामी, धाराशिव ( सोलापुर से उत्तर में ३७ मील), ऐहोल, एलोरा आदि के जैन गुहा मन्दिर महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त पीतलखोरा के निकट पाटन ग्राम के पूर्व में कन्हर पहाड़ी के पश्चिमी भाग में नागार्जुन की कोठरी एवं सीता की नहानी नामक गुफाएँ हैं। नासिक के निकट स्थित चामरलेण का काल ११-१२वीं सदी है। अन्य गुहा मन्दिरों में भामेर - मन्दिरों में भामेर ( धूलिया से ३० मील), बामचंद्र ( पूना से १५ मील), अंकाइतंकाइ, उदयगिरि (भेलसा) आदि भी महत्त्वपूर्ण हैं। उदयगिरि (क्रमांक २०) गुप्तकाल का एक मात्र जैन गुहा मन्दिर है जहाँ कुमारगुप्त प्रथम के समय का एक लेख है।
दक्षिण भारत में कुछ ही जैन स्मारक है, जबकि संगमकाल में वहाँ जैन धर्म का प्रभुत्व था। यहाँ के अधिकांश स्मारकों को शैव पंथियों ने नष्ट कर दिया था। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण प्राचीन मन्दिर सित्तनवासल में स्थित है जो पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मा प्रथम के समय का है। कालान्तर में इसे शैवधर्म में परिवर्तित कर लिया गया था। दक्षिण के अंतिम वर्ग के ५ जैन गुहा-मन्दिर एलोरा (क्रमांक ३० से ३४) के हैं, जिनका निर्माण संभवतः ९वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ।
पुरातन जैनावशेषों में मंदिरों का भी विशिष्ट स्थान है। जैन तीर्थ और मंदिरों का श्रेष्ठत्व न केवल धार्मिक दृष्टि से ही है, अपितु भारतीय शिल्प स्थापत्य और कला की दृष्टि से भी उनका अपना
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स्वतंत्र स्थान है। मंदिर आध्यात्मिक साधना के पुनीत स्थल होने के साथ ही साथ जिनधर्म और नैतिक परंपरा के समर्थक भी हैं। मयशास्त्र और काश्यपशिल्प में जैन और बौद्ध मंदिरों का उल्लेख है। मानसार के अनुसार जैन मंदिर नगर के बाहर और वैष्णवमंदिर नगर के मध्य में होना चाहिए। संभवत: बहुसंख्यक जैन मंदिर शांति के कारण नगर के बाहर बनाये जाते थे अतः मानसार में उक्त वर्णन मिलता है। श्री गौरीशंकरजी ओझा लिखते हैं कि सन् की सातवीं शताब्दी के आस-पास से बारहवीं शताब्दी तक के सैकड़ों जैन और वेदधर्मावलंबियों के अर्थात् ब्राह्मणों के मन्दिर अब तक किसी न किसी दशा में विद्यमान हैं। क्षेत्र भिन्नता के अनुसार इन मंदिरों की शैलियों में भी अन्तर है। कृष्णा नदी के उत्तर से लेकर सारे उत्तरी भारत के मन्दिर आर्य शैली के हैं और उक्त नदी के दक्षिण के द्रविड़ शैली के जैनों और ब्राह्मणों के मंदिरों की रचना में बहुत कुछ साम्य है। अंतर इतना है कि जैन मंदिरों के स्तंभों, छतों आदि में बहुधा जैनों से सम्बन्ध रखनेवाली मूर्तियाँ तथा कथाएँ खुदी हुई पाई जाती है, और ब्राह्मणों के मंदिरों में उनके धर्म सम्बन्धी बहुधा जैनों के मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटी-छोटी देवकुलिकाएँ बनी रहती हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ स्थापित की जाती है। जैन मंदिरों में कहीं-कहीं दो मण्डप और एक विस्तृत वेदी भी होती है। दोनों शैलियों के मंदिरों में गर्भगृह के ऊपर शिखर और उसके सर्वोच्च भाग पर आमलक होता है। आमलक के ऊपर कलश रहता है और वहीं ध्वज दंड भी होता है।
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सामान्यतः जैनमंदिरों की विशेषताएँ ये हैं : १. इनके आंगन के चारों ओर स्तंभयुक्त छोटे-छोटे मंदिरों का समूह होता है और इस मंदिर समूह के मध्य में मुख्य मंदिर का निर्माण किया जाता है। २. इन मंदिरों का मुख चारों ओर होता है और प्रतिमा भी चतुर्मुख होती है ।।
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जैन मंदिरों में निम्न मंदिर उल्लेखनीय हैं - सौराष्ट्र के थान के दो लघु मंदिर, भरहुत के निकट पिथोरा' में पट्टनी देवी का मंदिर ओसिया (राजस्थान) का महावीर मंदिर (प्रतिहारनरेश वत्सराज के काल का ७७०ई०-८००ई०), महोबा से १० मील उत्तर-पूर्व में स्थित मकरबाई' का जैन मंदिर, खजुराहो के जैनमंदिर, देवगढ़ (झांसी) के जैन मंदिर, देलवाड़ा के जैन मंदिर, राणकपुर (राजस्थान), मीरपुर, सरोत्रा, तारंगा पर्वत गुजरात कुम्भारिय, चित्तौड़, ऊन ( म०प्र०), उदयपुर, ग्यारसपुर, बूढ़ी चंदेरी ( म०प्र०) आदि ।
काठियावाड़ में पालीताना में शत्रुंजय पहाड़ी पर शताब्दियों तक जैन श्रावक मंदिर निर्मित कराते रहे। चार सौ बीस फुट चौड़ी घाटी मंदिर व शिखरों से भरी है। शत्रुंजय का पहाड़ तो मंदिरों का नगर ही कहा जाता है। जूनागढ़ भी जैनों के मंदिरों का नगर है। राणकपुर (जोधपुर राजस्थान) चौमुखी मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। राजस्थान के जैन मंदिर समूह की अपनी निजी विशेषता
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