Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 255
________________ २१६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ शांतिनाथ जिनालय, जावर (उदयपुर) के वि० सं० १४७८ मुनिसुन्दरसूरि के चौथे शिष्य शिवसमुद्रगणि हए। इनके द्वारा पौष दि ५ के प्रशस्तिलेख७ में सोमसुन्दरसूरि, जयचन्द्र, रचित कोई कृति नहीं मिलती और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख भुवनसुन्दर, जिनसुन्दर, जिनकीर्ति, विशालराज, रत्नशेखर, उदयनंदि, ही प्राप्त होता है किन्तु इनके शिष्य हेमविमलगणि द्वारा वि०सं० लक्ष्मीसागर, सत्यशेखरगणि, सूरसुन्दरगणि आदि मुनिजनों के साथ १५१७ में लिखित नेमिनाथचरित्र की एक प्रति पाटण के ग्रन्थभंडार मुनिसुन्दरसूरि का भी नाम मिलता है। ठीक जीरावला स्थित विभिन्न से प्राप्त हुई है ऐसा मुनि चतुरविजय जी ने उल्लेख किया है५५। जिनालयों के देवलिकाओं पर उत्कीर्ण वि०सं० १४८३ वैशाख सदि४८७ और भाद्रपद वदि ७ के कई लेखों के बारे में भी देखी जा संदर्भ सकती है। यहां भी सोमसुन्दरसूरि, जयचन्द्र, भुवनसुन्दर और जिनसुन्दर १. मुनिसुन्दरसूरिकृत गुर्वावलि (रचनाकाल वि० सं० १४६६/ के साथ मुनिसुन्दरसूरि का उल्लेख है। यही बात उक्त तीर्थ पर निर्मित ई०स० १४१०) श्लोक ८०-९६. महावीर जिनालय के देरी क्रमांक ७ पर उत्कीर्ण वि०सं० १४७८ पौष यशोविजय जैनग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ४, वीरसम्वत् २४३७, दि २ रविवार के शिलालेखों५० में भी दिखाई देती है। पृष्ठ ८-१०. मुनि प्रतिष्ठासोम, सोमसौभाग्यपट्टावली (रचनाकाल वि०सं० शिष्यपरिवार १५२४/ई०स० १४६८) मुनिदर्शनविजय, संपा०, सोमसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि और जयचन्द्रसूरि, पट्टावलीसमुच्चय, प्रथम भाग, श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला, जिनका पूर्व में परिचय दिया जा चुका है, मुनिसुन्दरसूरि के आज्ञानुवर्ती ग्रन्थांक २२, वीरमगाम १९३३ ई०, पृष्ठ ३५-४०. थे। मुनिसुन्दरसूरि के निधन के पश्चात् रत्नशेखरसूरि उनके पट्टधर बने। धर्मसागरउपाध्याय, "श्रीतपागच्छपट्टावली-स्वोपज्ञ वृत्ति मुनिसुन्दरसूरि के एक शिष्य संघविमल हए, जिन्होंने सहित” (रचनकाल वि० सं० १६४६/ई०स० १५९०. वि० सं० १५०१/ई०स० १४४५ में सुदर्शनश्रेष्ठीरास५१ की रचना पट्टावलीसमुच्चय, प्रथम भाग, पृष्ठ ५७. की। कल्याणविजयगणि, पट्टावलीपरागसंग्रह, जालोर १९६६ उनके दूसरे शिष्य हर्षसेन द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती ई०स०, पृष्ठ १४५-४६ किन्तु हर्षसेन के शिष्य हर्षभूषण द्वारा रचित श्राद्धविधिविनिश्चय मुनि जिनविजय जी द्वारा संपादित विविधगच्छीयपट्टावली(रचनाकाल वि०सं० १४८०/ई०स० १४३४), अंचलमतदलन संग्रह (सिंघी जैन ग्रंथमाला, ग्रन्थांक ५३, मुम्बई १९६१ई०) पर्युषणविचार (रचनाकाल वि०सं० १४८६/ई०स० १४३०) तथा में भी तपागच्छ और उसकी कुछ शाखाओं की पट्टावलियां वाक्यप्रकाशओक्तिकटीका नामक कृति प्राप्त होती है५२। प्रकाशित हैं। मुनिसुन्दरसूरि के तीसरे शिष्य विशालराज द्वारा रचित कोई २. तपागच्छ पट्टावली, वृद्धपौषालिक पट्टावली, लघुपौषालिक कृति नहीं मिलती, किन्तु इनके शिष्यों-प्रशिष्यों का विभिन्न रचनाओं अपरनाम हर्षकुलशाखा या सोमशाखा की पट्टावली, के कर्ता एवं प्रतिलिपिकार के रूप में नाम मिलता है५३। इनका संक्षिप्त विजयानंदसूरिशाखा अपरनाम आनंदसूरिशाखा की पट्टावली, विवरण निम्नानुसार है: तपागच्छ विमलशाखा की पट्टावली, तपागच्छ सागरशाखा १. विवेकसागर की पट्टावली, तपागच्छ रत्नशाखा अपरनाम राजविजयशाखा इनके द्वारा रचित हरिशब्दगर्भित वीतराणस्तवन नामक कृति की पट्टावली, कमलकलशशाखा की पट्टावली, कुतुबपुराशाखा प्राप्त होती है। की पट्टावली, तपागच्छ-विमलसंविग्न और विजयसंविग्न २. मेरुरलगणि शाखा की पट्टावलियां। इनके शिष्य संयममूर्ति का प्रतिलिपिकार के रूप में उल्लेख उक्त सभी पट्टावलियों के लिये द्रष्टव्य-मोहनलाल दलीचन्द मिलता है। देसाई जैनगूर्जरकविओ, भाग९, संपा० जयन्त कोठरी, ३. कुशलचारित्र मुम्बई १९९७ ई०, पृष्ठ ४४-११४. इनके शिष्य रंगचारित्र द्वारा वि०सं० १५८९ में लिखी गयी तपागच्छ की विभिन्न पट्टावलियों का सार पट्टावलीपरागसंग्रह क्रियाकलाप की प्रति प्राप्त हुई है। पृष्ठ १३३-२२८ पर भी दिया गया है। ४. सुधाभूषण चित्तावालयगच्छिकमंडणं जयइ भुयणचंदगुरू। इनके एक शिष्य जिनसूरि द्वारा रचित गौतमपृच्छावाला० तस्स विणेओ जाओ गुणभवणं देवभवदमणी।। (रचनाकाल वि० सं० १५०५ के आसपास), प्रियंकरनृपकथा, तप्पयभत्ताजगचंद सूरिणो तेसिं दुन्नि वरसीसा। रूपसेनचरित्र आदि कृतियां प्राप्त होती हैं। सिरिदेविंदमुणींदो तहा विजयचंदसूरिवरो।।४०५०।। सुधाभूषण के दूसरे शिष्य कमलभूषण द्वारा रचित कोई कृति इस सुदरिसणाइ कहानाण- तवच्चरणकारणं परमं। नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य विशालसौभाग्यगणि द्वारा वि० सं० मूलकहाउ फुडत्थाभिहिया देविंदसूरीहिं।। ४०५१।। १५९५ में लिखी गयी कल्पसूत्र की प्रति सिनोर के जैन ज्ञान भंडार परमत्था बहुरयणा दोगच्चहरा सुवन्नलंकारा। में संरक्षित है५४॥ सुनिहि व्व कहा एसा नंदउ वियुहस्सिया सुइरं।।४०५२।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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