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ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत
होते थे। समुद्रयात्रा के प्रसंग में पोतपट्टन और जलपत्तन जैसे बन्दरगाहों का प्रयोग होता था। व्यापार के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ जहाज में भरकर व्यापारी ले जाते थे और विदेश से रत्न कमाकर लाते थे। अश्वों का भी व्यापार होता था। १३ इस प्रसंग में अश्व विद्या की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
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ज्ञाताधर्मकथा की विभिन्न कथाओं में जो भौगोलिक विवरण प्राप्त होता है वह प्राचीन भारतीय भूगोल के लिए विशेष उपयोग का है। राजगृही, १४ चम्पा, १५ वाराणसी, द्वारिका, मिथिला, हस्तिनापुर, १६ साकेत, मथुरा, श्रावस्ती आदि प्रमुख प्राचीन नगरों के वर्णन कात्यात्मक दृष्टि से जिने महत्त्व के हैं, उतने ही भौगोलिक दृष्टि से भी राजगृह के प्राचीन नाम गिरिब्रज, वसुमति बार्हद्रतपुरी, मगधपुर, बराय वृषभ, ऋषिगिरी, चैत्यक बिम्बसारपुरी और कुशालपुर थे। बिम्बसार के शासनकाल में राजगृह में आग लग जाने से वह जल गई इसलिए राजधानी हेतु नवीन राजगृह का निर्माण करवाया। इन नगरों में परस्पर आवागमन के मार्ग क्या थे और इनकी स्थिति क्या थी इसकी जानकारी भी एक शोधपूर्ण अध्ययन का विषय बनती है। विभिन्न पर्वतों, नदियों, वनों के विवरण भी इस ग्रन्थ में उपलब्ध हैं। कुछ ऐसे नगर भी हैं, जिनकी पहचान अभी करना शेष है। १७
सामाजिक धरणाएँ
इस प्रन्थ में सामाजिक रीतिरिवाजों, खान-पान, वेशभूषा धार्मिक एवं सामाजिक धारणाओं से संबंधित सामग्री भी एकत्र की जा सकती है। महारानी धारिणी की कथा में स्वप्नदर्शन और उसके फल पर विपुल सामग्री प्राप्त है। १८ जैनदर्शन के अनुसार स्वप्न का मूल कारण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय है दर्शनमोह के कारण मन में राग और द्वेष का स्पन्दन होता है, चित्त चंचल बनता है। शब्द आदि विषयों से संबंधित स्थूल और सूक्ष्म विचार तरंगों से मन प्रकंपित होता है। संकल्प-विकल्प या विषयोन्मुखी वृत्तियां इतनी प्रबल हो जाती हैं कि नींद आने पर भी शांति नहीं होती। इन्द्रियां सो जाती हैं किन्तु मन वृत्तियां भटकती रहती हैं। वे अनेक विषयों का चिन्तन करती रहती हैं। वृत्तियों की इस प्रकार की चंचलता ही स्वप्न है। आचार्य जिनसेन ने स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले, ये दो स्वप्न के प्रकार माने हैं। जब शरीर पूर्ण स्वस्थ होता है तो मन पूर्ण शांत रहता है, उस समय जो स्वप्न दीखते हैं वह स्वस्थ अवस्था वाला स्वप्न है। ऐसे स्वप्न बहुत ही कम आते हैं और प्रायः सत्य होते हैं। मन विक्षप्त हो और शरीर अस्वस्थ हो उस समय देखे गये स्वप्न असत्य होते हैं।
ते च स्वप्ना द्विधा श्राता स्वस्थास्वस्थात्मगोचरा: समैस्तु धातुभिः स्वस्वविषमैरितरैर्मता ।
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तथ्या स्युः स्वस्थसंदृष्टा मिथ्या स्वप्नो विपर्ययात, जगत्प्रतीतमेतद्धि विद्धि स्वप्नविमर्शनम् ।।
महापुराण ४१-५९/६० इसी प्रकार धारिणी के दोहद की भी विस्तृत व्याख्या की जा सकती है। उपवन भ्रमण का दोहद बड़ा सार्थक है । दोहद की इस प्रकार की घटनाएं आगम साहित्य में अन्य स्थानों पर भी आई हैं। जैन कथासाहित्य में बौद्ध जातकों में और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में दोहद का अनेक स्थानों पर वर्णन हैं। यह ज्ञातत्य है कि जब महिला गर्भवती होती है तब गर्भ के प्रभाव से उसके अन्तर्मानस में विविध प्रकार की इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। ये विचित्र और असामान्य इच्छाएँ दोहद दोहला कही जाती है। दोहद के लिए संस्कृत साहित्य में द्विहृद भी आया है। द्विहद का अर्थ है दो हृदय को धारण करनेवाली अंगविज्जा जैन साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में विविध दृष्टियों से दोहदों के संबंध में गहराई से चिन्तन किया है। जितने भी दोहद उत्पन्न होते हैं उन्हें पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है- शब्दगत, गंधगत, रूपगत, रसगत और स्पर्शगत । क्योंकि ये ही मुख्य इन्द्रियों के विषय है और इन्हीं की दोहदों में पूर्ति की जाती है । १९
सन्दर्भ
१.
नौवें अध्ययन में विभिन्न प्रकार के शकुनों का उल्लेख है। " शकुन दर्शन ज्योतिषशास्त्र का एक प्रमुख अंग है। शकुनदर्शन को परम्परा प्रागैतिहासिक काल से चलती आ रही है। कथा साहित्य का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि जन्म, विवाह, बहिर्गमन, गृहप्रवेश और अन्यान्य मांगलिक प्रसंगों के अवसर पर शकुन देखने का प्रचलन था। गृहस्थ तो शकुन देखते ही थे, श्रमण भी शकुन देखते थे। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार एक वस्तु शुभ मानी जाती है और वहीं वस्तु दूसरी परिस्थितियों में अशुभ भी मानी जाती है। एतदर्थं शकुल विवेचन करने वाले ग्रन्थों में मान्यता- भेद भी प्राप्त होता है। प्रकीर्णक गणिविद्या में लिखा है कि शकुन मुहूर्त से भी प्रबल होता है। जंबूक, चास (नीलकंठ), मयूर, भारद्वाज, नकुल यदि दक्षिण दिशा में दिखलाई दें तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ में भी पारिवारिक संबंधों और शिक्षा तथा शासन व्यवस्था आदि के सम्बन्ध में भी पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। धरिणी के शयनकक्ष का वर्णन स्थापत्य कला और वस्वकला की अमूल्य निधि है।
(क) जातधर्मकथा (सम्पा. पं. शोभाचन्द भारिल्ल) व्यावर १९८९
(ख) भगवान् महावीरनी धर्मकथाओ (पं. बेचरदास दोशी ).
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