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जैन साहित्य और शिल्प में वाग्देवी सरस्वती
डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी
___ संगीत, विद्या और बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती भारतीय साहित्य में : देवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय रही हैं। भारतीय देवियों में केवल लक्ष्मी अंगविज्जा, पउमचरिय और भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन ग्रन्थों में (समृद्धि की देवी) एवं सरस्वती ही ऐसी देवियाँ हैं जो भारत के ब्राह्मण, सरस्वती का उल्लेख मेधा और बुद्धि की देवी के रूप में है। एकाणंसा बौद्ध और जैन तीनों प्रमुख धर्मों में समान रूप से लोकप्रिय रही हैं। सिरी बुद्धी मेधा कित्ती सरस्सती। -अंगविज्जा, अध्याय ५८ ब्राह्मण धर्म में सरस्वती को कभी ब्रह्मा की (मत्स्यपुराण) और कभी देवी के लाक्षणिक स्वरूप का निर्धारण आठवीं शती ई० में विष्णु की (ब्रह्मवैवर्तपुराण) शक्ति बताया गया है। ब्रह्मा की पत्री के रूप ही पूर्णता प्राप्त कर सका था । आठवीं शती ई० के ग्रंथ चतुर्विशतिका में भी सरस्वती का उल्लेख किया गया है। बौद्धों ने प्रारम्भ में सरस्वती (बप्पभट्टिसूरिकृत) में हंसवाहना सरस्वती को चतुर्भुज बताया गया है की पूजा बुद्धि की देवी के रूप में की थी, पर बाद में उसे मंजश्री की और उसकी भुजाओं में अक्षमाला, पद्म, पुस्तक एवं वेणु के प्रदर्शन का शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया । ज्ञातव्य है कि मंजश्री बौद्ध देव- निर्देश है । वेणु का उल्लेख निश्चित ही अशुद्ध पाठ के कारण हुआ है। समूह के एक प्रमुख देवता रहे हैं। जैनों में भी सरस्वती प्राचीन काल
वास्तव में इसे वीणा होना चाहिए था। से ही लोकप्रिय रही हैं, जिनके पूजन की प्राचीनता के हमें साहित्यिक
प्रकटपाणितले जपमालिका कमलपुस्तकवेणुवराधरा । और पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त होते हैं।
धवलहंससमा श्रुतवाहिनी हरतु मे दुरितं भुविभारती ।। प्रारंभिक जैन ग्रन्थों में सरस्वती का उल्लेख मेधा और बद्धि
-- चतुर्विशतिका
दसवीं शती ई० के ग्रन्थ निर्वाणकलिका (पादलिप्तसूरिकृत) की देवी के रूप में किया गया है, जिसे अज्ञान रूपी अंधकार का नाश
में समान विवरणों का प्रतिपादन किया गया है। केवल वेणु के स्थान करनेवाली बताया गया है । संगीत, ज्ञान और बुद्धि की देवी होने के
पर वरदमुद्रा का उल्लेख है । १४१२ ई० के ग्रन्थ आचारदिनकर कारण ही संगीत, ज्ञान और बुद्धि से संबधित लगभग सभी पवित्र प्रतीकों
। (वर्धमानसूरिकृत) में भी समान विवरणों का उल्लेख है । केवल (श्वेतरंग, वीणा, पुस्तक, पद्म, हंसवाहन) को उससे सम्बद्ध किया गया
या गया वरदमुद्रा के स्थान पर वीणा के प्रदर्शन का निर्देश है। था। जैन ग्रन्थों में सरस्वती का अन्य कई नामों से भी स्मरण किया गया, भगवती वाग्देवते वीणापस्तकमौक्तिकालवलयश्वेताब्जमण्डितकरे। यथा श्रुतदेवता, भारती, शारदा, भाषा, वाक्, वाक्देवता, वागीश्वरी,
- आचारदिनकर वाग्-वाहिनी, वाणी और ब्राह्मी । उल्लेखनीय है कि जैनों के प्रमुख
श्वेताम्बर ग्रन्थों के विपरीत दिगम्बर ग्रन्थ प्रतिष्ठातिलक (१५४३ उपास्यदेव तीर्थकर रहे हैं, जिनकी शिक्षाएं जिनवाणी', 'आगम' या ई०) में सरस्वती का वाहन मयूर बताया गया है । प्रतिमानिरूपण 'श्रत' के रूप में जानी जाती थीं । जैन आगम ग्रंथों के संकलन एवं सम्बन्धी ग्रंथों के अध्ययन से स्पष्ट है कि हंसवाहना (कभी-कभी लिपिबद्धीकरण का प्राथमिक प्रयास लगभग दूसरी शती ई० पू० के मयरवाहना) सरस्वती चतर्भजा होंगी और उनके करों में मख्यत: मध्य में मथुरा में प्रारंभ हुआ था। ऐसी धारणा है कि मथुरा में प्रारम्भ पुस्तक, वीणा तथा पद्म प्रदर्शित होगा। होने वाले सरस्वती-आन्दोलन के कारण ही जैन आगमिक ज्ञान का लिपिबद्धीकरण प्रारम्भ हुआ था और उसके परिणामस्वरूप ही आगमिक मूर्त अंकनों में : ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के रूप में सरस्वती को उसका प्रतीक बनाया जैन परम्परा में सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण कुषाण-युग गया और उसकी पूजा प्रारम्भ की गई। आगमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री से निरन्तर मध्ययुग (१२वीं शती ई०) तक सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय रहा देवी होने के कारण ही उसकी भुजा में पुस्तक के प्रदर्शन की परम्परा है। मूर्तचित्रणों में सरस्वती को मुख्यत: तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त प्रारम्भ हई । मथरा के कंकालीटीले से प्राप्त सरस्वती की प्राचीनतम जैन किया गया है - द्विभुज, चतुर्भुज और बहभज । ग्रंथों के निर्देशों के प्रतिमा में भी देवी की एक भुजा में पुस्तक प्रदर्शित है। कुषाणयुगीन अनुरूप ही मूर्त अंकनों में सरस्वती का वाहन हंस (या मयूर) है और उक्त सरस्वती मूर्ति (१३२ ई०) सम्प्रति राजकीय संग्रहालय, लखनऊ उनकी भुजाओं में मुख्यत: वीणा, पुस्तक एवं पद्म प्रदर्शित है । सरस्वती (क्रमांक जे-२४) में संकलित है।
को या तो पद्म पर एक पैर लटकाकर ललितमुद्रा में आसीन निरूपित किया गया है, या फिर स्थानक मुद्रा में खड़े रूप में ।
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