Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 205
________________ १६६ साधना की दृष्टि से भी गृहस्थ का स्थान उतना निम्न नहीं है जितना सामान्यतया मान लिया जाता है सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से यह निर्देश है कि आरम्भ नो आरम्भ रूप गृहस्थ धर्म का यह स्थान आर्य हैं और समस्त दुःखों का अन्त करने वाला मोक्षमार्ग है। आज जो साधु विशेषण मात्र श्रमणों का है, कुछ शताब्दियों पूर्व तक यह विशेषण श्रावकों का भी रहा है। गृहस्थों के शाह और साहू जैसे उपनाम इसी का अपभ्रंस रूप है। जैन परम्परा के अनेकों अभिलेख ऐसे हैं जिनमें गृहस्थों के विशेषण के रूप में 'साधु' शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः गृहस्थ को अत्यन्त निम्नस्तरीय मानना उचित नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में तो स्पष्ट रूप से यह उल्लेख हैं कि चाहे सामान्य गृहस्थों की अपेक्षा श्रमणों को श्रेष्ठ मान लिया जाय किन्तु कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं जो श्रमणों से भी श्रेष्ठ होते हैं। इससे यह स्पष्टतया फलित होता है कि अनेक परिस्थितियों में गृहस्थ का साधनामय जीवन मुनियों से श्रेष्ठ हो सकता है। हमारे समाने इस युग में भी श्री हरीमल जी पारख जैसे कुछ सद् गृहस्थ रहे जिनका बाह्य आचार साधुओं की अपेक्षा भी श्रेष्ठ था। वस्तुतः आध्यात्मिक विकास और चारित्रिक साधना का सम्बन्ध केवल वेश और बाह्य आचार नियमों तक सीमित नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में ही स्पष्ट रूप से उस तथ्य को भी स्वीकार कर लिया गया है कि व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहकर भी अपनी आध्यात्मिक साधना के द्वारा निर्वाण के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है । ३ श्वेताम्बर और यामनीय परम्परा के द्वारा मान्य प्राचीन ग्रंथों में ऐसे अनेक उल्लेख है जिनमें गृहस्थ जीवन से सीधे परिनिर्वाण मुक्ति को उल्लेखित किया गया है। यदि गृहस्थ और मुनि दोनों ही सीधे मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता रखते हैं तो फिर उनमें किसी को श्रेष्ठ और किसी को हेय नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः प्रश्न किसी के गृहस्थ या मुनि होने का नहीं है। प्रश्न है उसने अपनी वासनाओं और विकारों पर किस सीमा तक विजय प्राप्त की है। वस्तुतः जिसके जीवन में अनासक्ति एवं समत्व का जितना विकास हुआ है वही उसकी श्रेष्ठता का मापदण्ड है उत्तराध्ययन के जिस उल्लेख का हमने पूर्व में निर्देश किया है वही यह सूचित करता है कि संयम और साधना के क्षेत्र में एक गृहस्थ भी मुनि की अपेक्षा श्रेष्ठ हो सकता है। यदि गंभीरता से विचार करें तो मुनि की अपेक्षा भी गृहस्थ जीवन में रहकर वासनाओं पर विजय प्राप्त करना और समभाव की साधना में निरत रहना अधिक कठिन है। मुनि जीवन की जो आचार व्यवस्था है उसमें फिसलन और विचलन के अवसर गृहस्थ को अपेक्षा अल्प होते हैं जंगल में साधना करने की अपेक्षा वेश्या के यहाँ चातुर्मास करने वाले स्यूलिभद्र को अधिक धन्यता इसलिए प्राप्त हुई कि उसने विचलन की सारी सम्भावनाओं के बावजूद अपनी चारित्रिक साधना को उज्जवलतम् बनाये रखा। अतः गृहस्थ जीवन में रहकर आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने वाले व्यक्ति को अधिक महत्व दिया जाता हैं। एक मुनि भी ब्रह्मचर्य जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ Jain Education International का पालन करता है किन्तु विजय सेठ और उनकी पत्नी विजया के द्वारा एक शय्या पर सोकर ब्रह्मचर्य पालन की जो महानता है वह उससे कई गुना अधिक है। आध्यात्मिक विकास के मार्ग में उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि व्यक्ति ने मुनि का वेश धारण कर रखा है या गृहस्थ का महत्त्वपूर्ण यह है कि उसने अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करने तथा अपने चैतसिक समत्व को बनाए रखने में कितनी क्षमता है और ऐसे श्रेष्ठ श्रावकों को मुनि संघ के सजग प्रहरी बने रहने का पूर्ण अधिकार है। वस्तुतः गृहस्थ और मुनि के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर जो विवाद उत्पन्न होते हैं उनमें हम केवल उनके बाह्य रूपों पर ध्यान देते हैं। उनके चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास की सामान्यतया उपेक्षा ही कर देते हैं। वस्तुतः एक चरित्र सम्पन्न आगमज्ञ गृहस्थ को यह अधिकार प्राप्त है कि वह मुनि संघ का सजग प्रहरी बनकर कार्य करें। आज सामान्य रूप से यह दृष्टिकोण विकसित हो रहा है कि मुनि श्रेष्ठ है और गृहस्थ को उसके नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं है। वस्तुतः समाज का यह दुर्भाग्य है कि न तो मुनिवर्ग में आमि ज्ञान और आचार प्रवणता है और न गृहस्थों में साधना आज स्थिति यह है कि हमारा मुनिसंघ अपनी जो भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त श्रावकों और विशेष रूप से सुम्पन्न श्रावकों का आश्रित बनता जा रहा है और वे श्रावक जो उनके भक्त बने हुए होते हैं उनमें न तो चरित्र बल होता है और न आगमज्ञान, मात्र अनुचित साधनों से उपार्जित सम्पदा के बल पर समाज के नेता बने हुए हैं। यहीं स्थिति रही तो वही कहावत चरितार्थ होगी 'हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे' । वस्तुतः आज श्रावकों और साधुओं के बीच पारस्परिक सम्बन्धों को तय करना आवश्यक है। वह सत्य है कि उन श्रावकों को जिनके पास न चारित्रिक बल है और न आगमज्ञान उन्हें मुनि संघ के नियंत्रण और मार्गदर्शन का अधिकारी नहीं माना जा सकता, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि श्रावक वर्ग को मुनि को अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्तियों से रोकने का कोई अधिकार नहीं है। हमारे सामने उपासकदशांग का आनन्द और गौतक का कथानक इसका मार्गदर्शक है। आनन्द अपने ही आवास में स्थित साधनागृह में समाधिमरण की साधना में रत है, भिक्षार्थ जाते हुए गौतम उसके यहाँ जाते हैं, आपस में अवधिज्ञान की सीमा को लेकर दोनों में मतभेद होता है। गौतम जब महाबीर के पास पहुँचकर उस घटना का उल्लेख करते हैं तो महावीर उन्हें स्पष्ट आदेश देते हैं कि आहार ग्रहण करने के पूर्व आनन्द के पास जाकर क्षमायाचना करो। क्या गौतम से अधिक चरित्रवान् और शानी आज का साधु वर्ग है? महावीर के निकटस्थ शिष्य होने पर भी उनका किसी गृहस्थ के यहाँ क्षमा याचना करने जाने का यह प्रसंग इस बात का साक्षी है कि अपनी कमी या गलतियों के लिए मुनि को श्रावक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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