Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 227
________________ १८८ है या अन्यथा इस विचारणा का उनको कुछ विशिष्ट प्रयोजन ही उपस्थित नहीं होता था। अतएव उन्होंने "यादृशं श्रुतं तादृशं लिखितम्"इस सूत्र का ही सामान्य रूप से अनुसरण प्रबन्ध ग्रन्थों की रचना में किया है। उन प्राचीन प्रबन्धों का अध्ययन व संशोधन इसी दृष्टि को समक्ष रख कर ही करना चाहिए और उसी रूप में उनका योग्य उपयोग भी। किसी भी रूप में सही पर हमारे देश की यत्किकञ्चित् भी प्राचीन स्मृति को उन प्रबन्धकारों ने ही सुरक्षित रखा है अन्यथा वह संपत्ति आज हमारे लिये सर्वथा अप्राप्य होती। जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ इस प्रकार गुजरात के जैन धर्म ने अपनी आश्रय भूमि को अपनी क्या देन दी उसका रेखाचित्र खींचने का मैंने तनिक प्रयत्न किया है। गुजरात को उस जैन धर्म का परिचय कैसे और कब प्राप्त हुआ इसका भी संक्षिप्त सिंहावलोकन करना यहाँ स्वतः प्राप्त है। गुजरात में जैन धर्म का प्रचार वस्तुतः गुजरात जैन धर्म की जन्म भूमि नहीं है और न जैन धर्म का कोई मुख्य प्रवर्तक गुजरात में उत्पन्न ही हुआ। फिर भी फिर भी हमारे पूर्व कथन से स्पष्ट है कि गुजरात जैन धर्म के लिए सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रिय आश्रय स्थान बना है। इतिहास युग में जैन धर्म ने अपना जो कुछ उत्कर्ष सिद्ध किया है वह गुजरात में ही सिद्ध किया है। देखा जाए तो गुजरात में ही सबसे अधिक उत्कर्ष भी हुआ है गुजरात की भूमि एक तरह से जैन धर्म की दृष्टि से दत्तक पुत्र की माता के समान है। फिर भी उसकी गोद में जैन धर्म ने जन्म दात्री भूमि की अपेक्षा भी अधिक प्रेम और वात्सल्य का लाभ लिया है। गुजरात और जैन धर्म के प्रकृति मेल में ऐसे कौन से ऐतिहासिक कारणों और सामाजिक तत्त्वों का हिंसा है इसका इतिहास बहुत रसप्रद और क्रान्ति सूचक है। किन्तु इसके विशेष विवेचन का यह अवसर नहीं है। इसके लिए तो हमें कुछ विशेष तफसील में जाने की जरूरत है। जैन धर्म की आचार-विचारात्मक प्रकृति के परिचय के साथ ही गुजरात के जिन प्रजाजनों ने जैन धर्म को स्वीकार किया उनके लाक्षणिक जाति परिचय की भी मीमांसा करना आवश्यक है। इसके अलावा गुजरात के राजकीय परिवर्तनों की और भौगोलिक परिस्थितियों की भी विस्तृत विचारणा करनी चाहिए। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति और जाति की विशिष्ट प्रकृति होती है; उसी प्रकार प्रत्येक धर्म की भी खास प्रकार की प्रकृति होती है। ब्राह्मण, बौद्ध, शैव, वैष्णव, जैन आदि प्रत्येक धर्म की विशिष्ट प्रकृति है। जैसे अमुक प्रकृति के मनुष्य को अमुक प्रदेश की आबोहवा विशेष अनुकूल या प्रतिकूल हो जाती हैं, वैसे धर्म के लिए भी कुछ प्रादेशिक वातारण अनुकूल या प्रतिकूल हो जाता है। जैन धर्म की अहिंसा प्रधान प्रकृति को गुजरात और उसके आसपास के प्रदेश की सामाजिक, राजकीय और भौगोलिक सब प्रकार की पाशस्थिति Jain Education International विशेष रूप से अनुकूल हो गई जिससे वह धर्म उस प्रदेश में सुदृढ़ और विकसित हुआ सिर्फ इतना ही मैं यहाँ इशारा करना चाहता हूँ। गुजरात की भौगोलिक परिस्थिति ऐसी है कि उस भूमि में प्राचीन कारन से अनेक जातियाँ यहाँ आकर बसती रही हैं और इस प्रकार यहाँ के निवासियों को दूसरी जातियों के साथ सतत समागम होता आया है। आर्य और अनार्य, वैदिक और अवैदिक, ग्रीक और रोमन, इजिप्शियन और पर्शियन, सीथियन और पार्थियन हूण और अरब, ईरानियन और मंगोलियन इस प्रकार से विविध जाति के विदेशियों का निवास भिन्न-भिन्न समय में छोटी-बड़ी संख्या में उस भूमि में हुआ है। इनमें से अधिकांश अपना जाति पार्थक्य छोड़कर एक महा हिन्दू जाति के रूप में मिश्रित हुए हैं। उस भूमि में वास करने वाले ऐसे अनेक भिन्न जातीय जनों के अद्भुत संमिश्रण युक्त यह प्राचीन हिन्दू समाज गुजरात में था। वह समाज तब किसी विशिष्ट प्रकार के रूढ़ धार्मिक संस्कारों से जकड़ा हुआ नहीं था तथा जाति और वर्ण की संकीर्णता के वर्तुल से घिरा हुआ भी नहीं था। ऐसे समय में जैन धर्म ने गुजरात की भूमि में पदार्पण किया था। जैनधर्म के निष्परिग्रही, निलोभ, निर्भय, और तपस्वी उपदेशकों के दान, शील, तप और भावनापोषक सतत प्रवचनों ने गुजरात के उन हजारों प्रजाजनों में जैनधर्म के प्रति विशिष्ट श्रद्धा उत्पन्न की। धीरे-धीरे क्षत्रिय, वैश्य और कृषिकारों के अनेक कुटुम्बों ने जैन धर्म को स्वीकार किया और जिस जाति या वर्ण में मांसाहार या मद्यपान का प्रचार था उसका त्याग करके वे समानधर्मी कुटुम्बों की पृथक् गोष्ठियों के रूप में संगठित हो गए। प्रत्येक गाँव के ऐसे संगठित जैन गोष्ठिकों ने अपने-अपने स्थान में जैन मंदिरों का निर्माण किया और उन्हीं में अपनी सभी धर्म क्रिया करने लग गए। लाट, आनर्त, सौराष्ट्र और मालवा के प्रदेशों में जब क्षत्रियों की सत्ता प्रवर्तमान थी तब जैन धर्म का इस प्रकार उन प्रदेशों में धीरे-धीरे किन्तु स्थायी प्रचार शुरू हुआ। इसके बाद थोड़े ही समय में हूण और गूर्जर लोगों का एक पराक्रमी जनसमूह पंजाब की ओर से दक्षिण पूर्व भाग में आगे बढ़ा और दिल्ली, आगरा, अजमेर के प्रदेशों से होता हुआ वह अर्बुदाचल की पश्चिम दिशा में स्थित मरु प्रदेश में आकर रुक गया। सिंध, कच्छ और मरुभूमि की सीमाओं में स्थित भिल्लमाल नाम के स्थान को उन्होंने अपनी राजधानी बनाई उसके आस-पास का समस्त प्रदेश हूण और गूर्जर लोगों से आबाद हुआ। गुर्जरों के संख्या बाहुल्य से उस प्रदेश की गूर्जर देश के रूप में अभिनव ख्याति हुई और इस प्रकार गुजरात का नूतन जन्म हुआ। अणहिलपुर के उदय से पहले गूर्जर संस्कृति और सत्ता का केन्द्र भिल्लमाल था। गुर्जरों के पराक्रम और पुरुषार्थ के बल से वह स्थान श्री और समृद्धि से प्लावित हो गया। इसी से उसका दूसरा नाम श्रीमाल भी प्रसिद्ध हुआ। हूण और गुर्जर लोगों को जैनधर्म का उपदेश देने के लिये अनेक समर्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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