Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 230
________________ आगम का गंगावतरण १९१ आगमों को हिन्दी अनुवाद के साथ-साथ प्रकाशित किया। हिन्दी अर्थ, संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद देकर उसे जन मानस के अनुवाद विस्तृत व्याख्या और विद्वतापूर्ण भूमिका के कारण ये पास पहुँचा दिय गया। ठीक उसी तरह जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास संस्करण विद्वानों और जन सामान्य दोनों के लिये अधिक ग्राह्य बने ने वाल्मीकि के संस्कृत रामायण को जनभाषा मे रचकर जन मानस हैं। इसी क्रम में तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसी जी ने तक पहुंचा दिया। आगमों के संशोधन का कार्य शुरू किया है। जो लगभग ४० वर्षों आगम ज्ञानका आधार : अपरोक्षानुभूति से उनके समर्पित साधु और साध्वियों के द्वारा हो रहा है। इसकी जैन परम्परा में ज्ञान को अपौरुषेय नहीं माना गया है। सिद्द प्रशंसा देश विदेश के विद्वानों ने की है। प्रसिद्ध 'भारतविद् प्रो० राथ तो इस स्थिति पर पहुँच गये कि उनके द्वारा ज्ञान प्रसार किया जाना ने इतने कम समय में इतने बड़े कार्य सम्पन्न होते देखकर कहा है कि अपेक्षित नहीं है। इसलिए आगम का ज्ञानकरूणामूर्ति अर्हतों के सचमुच में कोई दैवी शक्ति काम कर रही है। पंडित दलसुख भाई माध्यम से होता है। अर्हतों का यह ज्ञान उनके प्रातिभ ज्ञान या मालवणिया ने कुछ नमूने देखकर ही अपार प्रसन्नता प्रकट की और अपरोक्षानुभूति का प्रतिफल है। आगम ज्ञान इस प्रकार सामान्य ज्ञान कहा कि यह अपूर्वकार्य है। आगम सम्पादन में आचार्य श्री तुलसी नहीं है जो इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है लेकिन इसे न तो इन्द्रियकी दीर्घदृष्टि है। ज्ञान के विरुद्ध माना जायेगा और न बुद्धि-ज्ञान के विरुद्ध। हाँ यह प्रथम, इस कार्य में कोई वेतनभोगी कार्यकर्ता नहीं होगा। इन्द्रीयातीत और तर्कातीत ज्ञान है। इसमें इन्द्रिय और बुद्धि-जन्य कार्यकर्ता अवैतनिक होंगे। ज्ञान भी समाहित रहते हैं इसमें सहज सृजनात्मकता का बाहुल्य है। दूसरा, यह गैर साम्प्रदायिक दृष्टि से किया जायेगा ताकि जिस प्रकार वेदों की ऋचाओं में हम स्फूर्तत, शक्ति और सृजनात्मकता यह सभी सम्प्रदायों को मान्य हो सके। पाते हैं ठीक उसीप्रकार आगम के ज्ञान में भी वे चीजे मिलती हैं। तीसरा, जो कार्य होगा वह इतना गम्भीर और ठोस होगा प्रातिभज्ञान केवल तत्त्वज्ञान का ही आधार नही, यह सामान्य ज्ञान कि उसे “अपूर्व' कहा जा सके। एवं विज्ञान का भी आधार है। लक्ष्य यह रहा कि सूत्र का अर्थ मूलस्पी रखा जाए। इसके लिए व्याख्या ग्रन्थों की अपेक्षा मूल आगमों का अधिक आधार लिया आप्रथकत्वानुयोग : गया। यह प्रयास रहा कि आगमों की व्याख्या आगमों से ही की जाए ज्ञान प्रदान करने की दो पद्धतियाँ हैं- पृथकत्वानुयोग एवं क्योंकि आगम परस्पर अवगंठित रहे हैं। विशेष अर्थ यदि कहीं अपृथकत्वानयोग। हम किसी चीज को या तो विश्लेषण करकेआवश्यक हो तो टिप्पणियों में स्पष्ट किया जाय। इसके अलावा उसको खंड-खंड करके देखते हैं या उसे हम संश्लेषित कर अखंड वैदिक और बौद्ध साहित्य से भी तुलना का कार्य हुआ। परस्पर भेद रूप सोचने की कोशिश करते हैं। आगम का ज्ञान-अपृथकत्वानयोग को टिप्पण में स्पष्ट किया गया। कालक्रम से अर्थभेद कैसे हुए इसको है। इसका अर्थ है कि आगम जीवन से सम्बन्धित सभी विषयों को भी बताया गया। सबसे पहले तो संशोधित संस्करण तैयार किया समाविष्ट करता है। जीवन समग्रता को कहते हैं। आगम जीवन का गया फिर उसकी संस्कृत छाया और अन्त में हिन्दी अनुवाद दिया काव्य है, इसलिए इसमें समग्रता स्वाभाविक है। जीवन को खंडगया। पाद टिप्पण प्रशस्त और इतने स्पष्ट हैं कि उनकी प्रामाणिकता खंड देखना जीवन के साथ अन्याय है। यही कारण है कि आगम में पर कोई प्रश्न उठा नहीं सकता। जीवन की समग्रता दीखती है। अतिविशेषीकरण के इस यग में आज इस प्रकार आचार्य तुलसी द्वारा मूल आगमों का संशोधन पुन: एक अन्तर अनुशासनिक (इन्टरडिसीप्लीनरी) धारा बढ़ रही है एवं अनुवाद एक अपूर्व सारस्वत कार्य है। हिन्दी में वेद के संस्करण जो आगम के अपृथकत्वानयोग पद्धति का समर्थन है। जीवन कोई निकले और कुछ भाष्य भी। आर्य समाज ने हिन्दी में अनुवाद भी बंद कोठरी के समान नहीं है, इससे सामाजिक, राजनीतिक, दार्शनिक, उपस्थित किया। किन्तु वेद के विभिन्न पाठों के संशोधन का कार्य नैतिक सभी प्रश्न जड़े हैं। अभी तक नहीं हो पाया है। उसी प्रकार बौद्धों के त्रिपिटक को भिक्ष जगदीश कश्यप ने अवश्य प्रकाशित कराया लेकिन अभी तक सम्प्रदाय निरपेक्षता : संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद का कार्य बाकी है। यद्यपि राहुलजी आगम किसी सम्प्रदाय विशेष का या किसी पंथ विशेष ने अधिकांश का हिन्दीअनुवाद कर दिया है, किन्तु उसमें भी अर्थ का ग्रंथ नहीं है। यह सम्पूर्ण मानव जाति का मार्ग दर्शक है। इसलिए संशोधन की सम्भावना तो शेष है ही। आचार्य तुलसी ने आगम आगम का अध्ययन जैन धर्म या पंथ की मर्यादाओं के बाहर देखा संशोधन, संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद सब काम एक साथ किये जाना चाहिए। आगम उसी प्रकार कोई साम्प्रदायिक ग्रंथ नहीं हैं, जैसे हैं। अतः प्रशस्ति के पात्र हैं। अभी तक आगम साहित्य जो प्राकृत वेद नहीं हैं। जिस प्रकार वेद निखिल मानव जाति के मार्ग-दर्शक हैं रूपी शिव की जटाओं में उलझ हुआ था उसके प्रत्येक शब्द की उसी प्रकार आगम सम्पूर्ण मानव जाति के मार्ग-दर्शक ग्रंथ हैं। इसके Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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