Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 229
________________ आगम का गंगावतरण डॉ० रामजी सिंह जिस प्रकार कैलाश स्थित भगवान् शिव की जटाओं में की मृत्यु हो जाने से इसमें व्यवधान होता था। प्राप्त सूचना के उलझी गंगा के अवतरण का श्रेय भागीरथ को दिया गया है, उसी अनुसार आगम की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में जैन श्रमणों के एक प्रकार आधुनिक युग में नियुक्तियों, भाष्यों, चूर्णियों एवं टीकाओं सम्मेलन में हुआ। इस सम्मेलन में श्रुत ज्ञान के ११ अंगों का आदि से युक्त जैनागमों को लोक-कल्याण के लिये प्रांजल रूप में संकलन किया गया किन्तु दृष्टिवाद किसी को याद नहीं था इसलिए लाने का श्रेय सागरमन्दसूरिजी पुण्यविजयजी, अमोलकऋषिजी, पूवों का संकलन नहीं हो सका। भद्रबाहु ने, जो पूर्वो के एकमात्र आत्मारामजी, उपाचार्य मिश्रमल जी एवं आचार्य तुलसी को है। ज्ञाता थे, उन्होंने भी स्थूल भद्र को दस पूर्वो का अर्थ सहित अध्ययन यही आगम का गंगावतरण भी है। यह दुर्भाग्य है कि जैनों के करवाया और अंतिम चार पूर्वो का अर्थ सहित अध्ययन कराने के अलग-अलग सम्प्रदायों में जैनागमों की संख्यादि के विषय में भी लिए मना कर दिया। जो कुछ भी हो पाटलीपुत्र के सम्मेलन में जैन एकवाक्यता नहीं है। श्वेताम्बरीय अर्धमागधी जैन आगम का प्रायः आगमों की प्रथम वाचना हुई, जिसका काल महावीर निर्वाण के ईस्वी सन् के पूर्व पाँचवी शताब्दी से लेकर ईस्वी सन् की पाँचवी लगभग १६० वर्ष पश्चात् माना जाता है। दूसरी वाचना महावीर शताब्दी तक माना जाता है। जैन परम्परा के अनुसार अर्हत् निर्वाण के लगभग ८२७ वर्ष बाद आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में भगवान् ने आगमों का प्ररूपण किया और उनके गणधरों के द्वारा मथुरा में हुई। इसे माथुरी वाचना कहा जाता है। इसी समय नागार्जुनसरि वे सूत्ररूप में निबद्ध किये गये के नेतृत्व में भी वलभी में ही एक सम्मेलन हुआ। उक्त दोनों अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणा। वाचनाओं में वाचना भेद रह गया। आगमों की तीसरी वाचना महावीर सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुतं तित्थ पवत्तहू।। निर्वाण के लगभग ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् वलभी में देवधिगणि श्री जैनश्वेताम्बर कांफ्रेंश द्वारा प्रकाशित जैन ग्रन्थावली में क्षमाश्रमण के नेतृत्व में हुई। इस प्रकार सभी मिलाकर चार सम्मेलन ८४ आगमों का उल्लेख है। १९२५ में जैन साहित्य संशोधन या वाचानाएँ हुई। मण्डल से प्रकाशित बृटिप्पणका नामक जैनग्रंथ सूची तैयार की आधुनिक काल में मुद्रण व्यवस्था का विकास होने के साथ गयी थी। इसी के आधार पर जैन ग्रंथावाली का प्रकाशन हुआ है आगमों के प्रकाशन में जैन आचार्यों की अभिरुचि जागृत हुई। जिसमें ८४ प्राचीन आगम-ग्रन्थों का उल्लेख है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय सर्वप्रथम मुर्शिदाबाद से श्वेताम्बर परमपरा में मान्य आगमों को मुद्रित में ४५ आगमों को स्वीकार किया गया । पंडित बेचरदास दोशी के किया गया, किन्तु उनका न तो वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादन नहीं किया अनुसार १२ अंग आगमों को सब सम्प्रदायों ने मान्य किया और गया था और न उनका भाषान्तर या अनुवाद ही हुआ था। अनुवाद यापनीय आचार्य अपराजित ने अपनी भगवती आराधना टीका में की दृष्टि से स्थानकवासी जैनाचार्य अमोलकऋषिजी ने अपनी परम्परा जैन आगमों के विवरण प्रस्तुत किया हैं दोनों परम्पराओं के अनुसार में मान्य ३२ आगमों का सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद किया। उसके द्वादशांग गणधरों द्वारा रचित है। श्वेताम्बरों की भांति दिगम्बरों ने भी पश्चात् मुनि श्री धासीलाल जी ने ३२ आगमों को संस्कृत छाया तथा दृष्टिवाद के ५ विभाग किये जिनमें १४ पूर्व का अन्तर्भाव होता है। हिन्दी और गुजराती व्याख्या के साथ प्रकाशित किया। यद्यपि अर्थघटन प्राचीनकाल में भी समस्त श्रृत ज्ञान १४ पूर्वो में अन्तर्निहित था। में उनकी मुख्य दृष्टि अपने सम्प्रदाय पर आधारित थी इनके अतिरिक्त भगवान् महावीर ने अपने ११ गणधरों को इनका उपदेश दिया था, आचार्य आत्मारामजी ने भी अनेक आगमों का हिन्दी व्याख्या के किन्तु काल दोष से यह पूर्व नष्ट हो गये। साथ प्रकाशन कराया। फिर भी आगमों का वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादन पाठ संशोधन आदि सम्बन्धी अनेक समस्यायें थी, जिनकों दृष्टि में वाचनाएं : रखकर कार्य करना अपेक्षित था। इस संदर्भ में मुनिश्री चतुरविजय जी प्राचीन काल में मुद्रण आदि की सुविधा उपलब्ध न होने के एवं पुण्यविजयजी ने आगमों के सम्पादन और प्रकाशन का कार्य कारण मौखिक परम्परा से ज्ञान का संरक्षण होता था। जैसे वैदिक महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई द्वारा किया। निश्चित ही महावीर जैन परम्परा में द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी होते थे, उसी प्रकार जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित ये आगम वैज्ञानिक दृष्टि से सम्पादित किये परम्परा में भी स्मरण का महत्त्व था। लेकिन कभी-कभी दुष्काल आदि गये फिर भी अनुवाद के अभाव में जनसामान्य के लिये ये उपयोगी के कारण भिक्षुगण या तो बिखर जाते थे या आगमपाठी (भिक्षुओं) नहीं बन पाये। इसी क्रम में स्थानकवासी मुनि- मिश्रीमलजी ने ३२ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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