Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 207
________________ १६८ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ भीड़ जुटने लगती है। यह एक आध्यात्मवादी निवृत्ति प्रधान जैन उनके प्रतिशत में भी कोई बहुत बड़ा अन्तर आया हो ऐसा भी मैं संस्कृति के लिए चिन्तनीय है, ये एक दिन यह कथन सार्थक हो नहीं मानता, किन्तु आज एक भी घटना से जिन शासन की जितनी जायेगा कि 'गुरु चेला दोनों डूबे बैठ पत्थर की नाव'। यदि श्रावकवर्ग प्रतिष्ठा धूमिल होती हैं उतनी प्राचीनकाल में नहीं होती थी, क्योंकि और श्राविका वर्ग में यह सजगता आवश्यक है कि मुनियों से उसका संचार के माध्यम इसने सक्रिय नहा थे आज मात्र छोटी सी घटना को सम्पर्क और सम्बन्ध अपने चारित्रिक विकास के लिए ही अपेक्षित है भी तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत कर दिया जाता है, अत: इस अपनी भौतिक एषणाओं की सम्पूर्ति के लिए नहीं। दूसरी ओर सम्बन्ध में अधिक सजगता की आवश्यकता हैं। यदि आज जिनमुनियों में भी यह चेतना विकसित होना आवश्यक है कि वे शासन की प्रतिष्ठा की रक्षा करना है तो हमें यह ध्यान रखना होगा आध्यात्मिक साधना एवं चारित्रिक विकास के लिए दीक्षित हुए हैं न कि संघ के सभी सदस्यों की जीवन शैली निर्दोष हो। इसलिए यह कि लोगों की भौतिक एषणाओं की सम्पूर्ति के लिए। लोकैषणा के आवश्यक है कि त्यागी-वर्ग श्रावकों का सजग प्रहरी बने और श्रावक लिए दोनों का एक दूसरे पर आश्रित होना यह शुभ लक्षण नहीं है। वर्ग त्यागी वर्ग का सजग प्रहरी बने। किन्तु प्रहरी बनने का उद्देश्य आज स्थिति यह है कि मुनियों को अपनी लोकैषणा की पूर्ति या अहं उनकी साधना में सहयोगी बनकर उनके आध्यात्मिक विकास के लिए के पोषण एवं प्रदर्शन के लिए श्रावकों से धन चाहिए और श्रावकों कार्य करना है न कि एक दूसरे की कमियों को समाज में उजागर को उनकी कृपा से भौतिक सम्पदा। इस दुश्चक्र का परिणाम क्या करना। होगा, यह विचारणीय है। आज सामान्या यह स्थिति विकसित होती आज एक खतरा यह भी बढ़ गया है-संचार माध्यम जा रही है कि समाज में चारित्रवान और ज्ञानी श्रावकों का कोई मूल्य ब्लैकमेल करने की कला में निपुण होता जा रहा है अत: उसके प्रति और महत्त्व नहीं रह गया है। साधुओं में आगम ज्ञान लुप्तप्राय होता भी सजग रहना है। आवश्यकता यह है कि एकान्त में बैठकर ही रहा है, ऐसी स्थिति में जो निर्धन, किन्तु श्रद्धा सम्पन्न एवं चारित्र गुण-दोषों की समीक्षा करनी होगी, तिल से ताड़ बनाने में सम्पूर्ण सम्पन्न श्रावक वर्ग है वह समाज से कटता जा रहा है। यह एक भिन्न जिन शासन की प्रतिष्ठा धूमिल होगी, उसमें श्रावक की प्रतिष्ठा भी बात है कि आज समाज में आर्थिक सम्पन्नता बढ़ी है किन्तु यह भी शामिल है। प्राचीन आगम साहित्य में प्रायश्चित् व्यवस्था को गोपनीय कम विचारणीय नहीं है कि इस आर्थिक समृद्धि की अभिवृद्धि के विषय इसीलिए माना गया था। बौद्धों में जहाँ प्रायश्चित् निर्धारण संघ साथ हमारी चारित्रिक निष्ठा और चारित्रबल दोनों का पतन हुआ है। के द्वारा होता था वहाँ जैनों में आचार्य के द्वारा होने से संघ की आज संचार साधनों की द्रुतगति हुई प्रगति हुई है, एक प्रतिष्ठा सुरक्षित रहती थी। आज भी आवश्यकता यही है कि श्रावक छोटी सी घटना भी अखबार में सुर्खियों में छप जाती है। परिणाम वर्ग प्रहरी बने उसकी भूमिका सिपाही की भूमिका हो। वह न्यायाधीश यह होता है कि किसी एक मुनि का चारित्रिक पतन भी सम्पूर्ण समाज नहीं है, वह दायित्व आचार्य का है। यदि दोनों वर्ग अपनी-अपनी के मुख पर कालिख लगा देता है। जब संचारमाध्यम इतना प्रबल मर्यादा और दायित्व को समझेंगे तभी जैन शासन की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। नहीं था तब यह विषय इतना चिन्तनीय नहीं था। यह तो सत्य है कि सन्दर्भ भगवान् महावीर के काल से लेकर आज तक कोई ऐसा समय नहीं १. सूत्रकृतांग २/२/३९, रहा जब इतने बड़े श्रमण संघ में किसी मुनि का चारित्रिक पतन हुआ २. उत्तराध्ययन ५२० हो, घटनाएँ तो पूर्वकाल में भी होती थीं और आज भी होती हैं। ३. उत्तराध्ययन ३६/४९, भरहेसचरियं ४६१-४६४ ४. उपासकदशा- आनन्द नामक प्रथम अध्ययन Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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