Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 212
________________ जैनधर्म और वर्णव्यवस्था १७३ इसके लिए हमें भारत की तात्कालिक और इससे पहले की परिस्थिति शूद्र के साथ असंवत नामक नरक को प्राप्त होता है। १७ श्राद्धकर्म के का अध्ययन करने की आवश्यकता है। इस समय भारतवर्ष में अयोग्य शूद्र का पका अन्न न खावे, किन्तु अन्न न मिलने पर एक हिन्दुओं और मुसलमानों का विरोध जिस स्तर पर चालू है ठीक वही रात्रि निर्वाह योग्य उससे कच्चा अन्न ले लेवे।१८ मृतक शूद्र को गांव स्थिति उस समय श्रमणों-ब्राह्मणों की थी। उस समय श्रमणों और के दक्षिण द्वार से ले जावे।१९ मरे हुए ब्राह्मण को शूद्र के द्वारा न ले श्रमणोपासकों को 'नंगा लुच्चा' कहकर अपमानित किया जाता था, जाय, क्योंकि शूद्र के स्पर्श से दूषित हुई वह शरीर की आहुति स्वर्ग उनके मन्दिर ढाये जाते थे, मूर्तियों के अंग भंग कर उन्हें विद्रूप देने वाली नहीं होती।२० शूद्रों को मास में एक बार हजामत बनवाना बनाया जाता था, बौद्धों को 'बुद्ध' शब्द द्वारा संबोधित किया जाता चाहिए और ब्राह्मण का जूठा भोजन करना चाहिए।२१ केवल जाति था और जैन-बौद्ध साधुओं को अनेक प्रकार से कष्ट दिये जाते थे। से जीविका निर्वाह करने वाला धर्महीन ब्राह्मण राजा की ओर से मीनाक्षी के मन्दिर में अंकित चित्र आज भी हमें उन घटनाओं की धर्मवक्ता हो सकता है।२२ परन्तु शूद्र कदापि नहीं हो सकता। जो शूद्र याद दिलाते हैं। ८-९वीं शताब्दी में यह स्थिति इतनी असह्य हो गई अपने से उच्च वर्ण की निन्दा करे तो राजा उसकी जिह्वा निकाल ले, थी जिसके परिणाम स्वरूप बौद्धों को तो यह देश ही छोड़ देना पड़ा क्योंकि उसका पैर से जन्म है और उसको अपने से उच्च को कुछ भी था और जैनों को तभी यहां रहने दिया गया था जब उन्होंने ब्राह्मणों कहने का अधिकार नहीं है।२३ यदि कोई शूद्र ब्राह्मण को नीच आदि के सामने सामाजिक दृष्टि से एक तरह आत्मसमर्पण कर दिया था। कुवचन कहे तो अग्नि में तपाकर १० अंगुल की लोहे की कील यह तो हम आगे चल कर बतलाएँगे कि आदिपुराण में मनुस्मृति से उसके मुँह में ठोक दे।२४ यदि कोई शूद्र अहंकारवश किसी ब्राह्मण कितना अधिक साम्य है। यहाँ केवल इतना ही उल्लेख करना पर्याप्त को उपदेश देवे तो राजा उसके कानों में तपा हआ तेल छोड़ देवे।२५ है कि आदिपुराण में शूद्र वर्ण का जो सेवावृत्ति कार्य बतलाया गया मनु जी की आज्ञा है कि शूद्र जिस अंग से द्विजातियों की ताड़ना करे है उसका श्रमण परम्परा से मेल नहीं खाता। उसी अंग का भंग कर देना चाहिए।२६ हाथ से मारे तो हाथ, पैर से इस प्रकार शूद्र वर्ण का प्रधान कार्य क्या था और बाद में मारे तो पैर भंग कर देना चाहिए।२७ शूद्र के ब्राह्मण के आसन पर उनकी सामाजिक स्थिति में किस प्रकार परिवर्तन होता गया इसका बैठने पर लोहा गर्म करके उसकी पीठ दाग दे, देश से निकाल दे संक्षेप में निर्देश किया। और उसके शरीर से मांसपिण्ड कटवा दे।२८ शूद्र के ब्राह्मण पर मनुस्मृति और शूद्रवर्ण थूकने पर दोनों होट कटवा दे, मूतने पर लिंगेन्द्रिय छिदवा दे और अब यहाँ यह देखना है कि शूद्रवर्ण की इस तरह की अपान वायु छोड़ने पर गुदा छेदन कर दे।२९ जो शूद्र अभिमानवश निकृष्ट अवस्था के होने में मनुस्मृति का कितना हाथ है। यह तो हम द्विजाति को बाल पकड़ कर पीड़ा दे या पैर या वृषणों को कष्ट दे तो पहले ही बतला आए हैं कि मनुस्मृति में चारों वर्गों के कार्यों और उसके हाथ को कटवा दे। शूद्र यदि भर्ता आदि द्वारा रक्षित स्त्री के उनके परस्पर सम्बन्ध का विस्तृत विचार किया गया है। उसके कर्ता साथ गमन करे तो उसकी लिंगेन्द्रिय कटवा दे।३१ क्रीतदास या ग्रन्थ के आदि में मंगलाचरण के बाद स्वयं लिखते हैं ११:- प्राप्तदास इन्हीं से टहल सेवा करावे, क्योंकि ब्रह्माजी ने शूद्र को भगवन्! सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः। ब्राह्मण का दासकर्म करने के लिए ही उत्पन्न किया है।३२ ब्राह्मण अन्तरप्रभवाणां च धर्मानो वक्तुमर्हसि।। मालिक द्वारा त्यागा हुआ शूद्र दासत्व से मुक्त नहीं हो सकता, हे भगवन्! सब वर्णों और संकीर्ण जातियों के धर्मों को क्योंकि उसका दासत्व स्वभावसिद्ध है, उसे कौन छुड़ा सकता है।३३ आद्यन्त आप हमें कहने के योग्य हैं। स्त्री, पुत्र और दास (शूद्र) ये अधम कहे गए हैं, क्योंकि वे जो धन मनुस्मृति कहती है एकत्र करते हैं वह इन्हीं के मालिक का होता है।३४ शूद्र का काम है 'ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इनकी निष्कपट भाव से सेवा कि वह निरन्तर अपने कार्य में रत रहे।३५ स्वर्ग की प्राप्ति के वास्ते करना यही एक धर्म शूद्र का कहा गया है। ११ शूद्र सन्ध्या करने का और इस लोक में अपनी गजर के वास्ते शूद्र ब्राह्मण की सेवा करे, अधिकारी नहीं। तथा जो द्विज प्रात: और सायंकाल के समय सन्ध्या क्योंकि वह ब्राह्मण का सेवक है। सेवक शब्द से शूद्र की कृतकृत्यता नहीं करता वह भी शूद्र के समान सब प्रकार के द्विजकर्तव्य से है।३६ ब्राह्मण की सेवा करना शूद्र का परम धर्म कहा है, शूद्र जो बहिष्करणीय है। १२ शूद्रकन्या से चारों वर्गों के मनुष्य विवाह कर अन्य कर्म करता है वह सब निष्फल हो जाता है।३७ सेवक शूद्र के सकते हैं परन्तु शूद्र शूद्रकन्या से ही विवाह कर सकता है। १३ श्राद्ध वास्ते ब्राह्मण उच्छिष्ट भोजन, पुराने वस्त्र और धान्यों के बाकी बचे में भोजन करते समय ब्राह्मण को चाण्डाल न देखे।१४ शूद्रों के राज्य कण और पुराने बर्तन देवे।३८ शूद्र का उपनयन संस्कार न करे, में निवास न करे।'' शूद्र को उपदेश न देवे और न झूठ हवन से उसका यज्ञादि धर्म में भी कोई अधिकार नहीं है।३९ शूद्र धनसंचय न बचा हुआ शाकल्य देवे तथा शूद्रों को धर्म और व्रतों का उपदेशन करे, क्योंकि उसके पास धन बढ़ जाने पर वह ब्राह्मणों को सताने करे।१६ शद्रों को धर्म और व्रत का उपदेश करने वाला मनुष्य उसी लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306