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जैनधर्म और वर्णव्यवस्था
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मनुस्मृति में ब्राह्मण के अध्ययन, अध्यापन, दान और देश की रक्षा करना और देश के भीतर सुव्यवस्था बनाये रखना रखना प्रतिग्रह ये चार मुख्य कार्य बतलाए हैं। अन्यत्र आदिपुराण में भी इन उनका काम है यह 'अभिरक्षा' शब्द से व्यक्त होता है। कार्यों का निर्देश है। किन्तु इनका पूर्वोल्लेखों से समर्थन नहीं होता। आजकल राजनीति में अहिंसा के प्रवेश का श्रेय महात्मा वस्तुतः ब्राह्मण वर्ण की स्थापना आजीविका की प्रधानता से न की गांधी को दिया जाता है। यह हम मानते हैं कि महात्मा गांधीने आज जाकर जीवन में व्रतों का महत्त्व स्थापित करने के लिए ही की गई की दूषित राजनीति में एक बहुत बड़ी क्रान्ति की है। इससे न केवल थी। आगे चलकर ब्राह्मण वर्ण स्वयं एक जाति बन गई यह वैदिक भारतवर्ष का मस्तक ऊँचा हुआ है अपितु विश्व को बड़ी राहत मिली धर्म की ही कृपा समझिए।
है। किन्तु यह कोई नई चीज नहीं हैं। हजारों वर्ष पहले से जैन २. क्षत्रिय वर्ण
शासकों की यही नीति रही है। भारत ने दूसरे देशों पर कभी दुसरा कारण अभिरक्षा है। किसी भी देश में ऐसे लोगों की आक्रमण नहीं किया, मात्र आक्रमण से इस देश की रक्षा की यह इसी बड़ी आवश्यकता होती है जो परचक्र से देश की रक्षा करते हुए नीतिका सुन्दर फल है। आज विश्व इस चीज को समझ रहा है और समाज में सुव्यवस्था बनाए रखते हैं। अभिरक्षा शब्द द्वारा इसी कार्य वह इसके लिए भारत की प्रशंसा भी करने लगा है। की सूचना की गई है। यह कार्य क्षत्रिय वर्ण की मुख्य पहचान है। ३. वैश्य वर्णइसके अनुसार शासन, सेना और पुलिस में लगे हुए मनुष्य क्षत्रिय तीसरा कारण कृषि है। प्रत्येक देश की अभिवृद्धि का मुख्य वर्ण के माने जा सकते हैं।
कारण कृषि, वाणिज्य, उपयोगी पशुओं का पालन और उनका क्रयसाधारणत: यह समझा जाता है कि शस्त्र धारण करना और विक्रय करना माना गया है। कार्य-विभाजन के साथ यह कार्य करना मारकाट करना क्षत्रियों का काम है। किन्तु जो लोग कहते हैं वे इस जिन्होंने स्वीकार किया था उन्हें वैश्य संज्ञा दी गई थी। उक्त कार्य बात को भुला देते हैं कि शस्त्रविद्या में निपुणता प्राप्त करना तथा देश वैश्य वर्ण की मुख्य पहचान है।
और समाज पर आपत्ति आने पर उसके वारण का उद्यम करना यह इस समय भारतवर्ष में वैश्यवर्ण एक स्वतन्त्र जाति मान किसी एक वर्ण का काम नहीं है। वर्ण में मुख्यता आजीविका की ली गई है और उसका मुख्य काम दलाली करना रह गया है। कृषि रहती है। यदि हम यह कहें कि वर्ण आजीविका का पर्यायवाची है तो और उपयोगी पशुओं का पालन करना यह काम उसने कभी का छोड़ कोई अत्युक्ति न होगी। जिस समय आदिनाथ जन्मे थे उस समय दिया है। इन दोनों कामों को करने वाले अब प्राय: शुद्र माने जाते हैं। उनका कोई वर्ण न था किन्तु जब उन्होंने प्रजा की रक्षा द्वारा इसी नीति का परिणाम है कि देश में आर्थिक विषमता अपना मुंह अपनी आजीविका करना निश्चित किया और आजीविका के आधार बाये खड़ी है। कृषक वर्ग देश की रीड़ है। उसके हाथ में ही व्यापार से मनुष्यों को तीन भागों में विभक्त कर दिया तब वे स्वयं अपने रहना चाहिए यह हमारे देश की पुरानी व्यवस्था थी। आज कल वह को क्षत्रिय वर्ण का कहने लगे। अभिप्राय यह है कि यदि कोई व्यवस्था सर्वथा लुप्त हो गई है जिससे न केवल भारतवर्ष दु:खी है पुलिस, सेना और शासन के प्रबन्ध में लगकर इस द्वारा अपनी अपितु विश्व में त्राहि-त्राहि मची हुई है। आजीविका करता है तो वह क्षत्रिय वर्ण का कहा जाता है, अन्यथा उत्पादन और वितरण का परस्पर सम्बन्ध है। उत्पादन एक नहीं। क्षत्रियों का वर्ण अर्थात् कार्य बतलाते हुए महाकवि कालीदास के हाथ में हो और वितरण दूसरे के हाथ में यह परम्परा समाज रघुवंश में राजा दिलीप के मुख से क्या कहलाते हैं यह उन्हीं के व्यवस्था को नष्ट करने के लिए घुन का काम करती है। हम रूस की शब्दों में सुनिये
आर्थिक प्रणाली को दोष दे सकते हैं पर बारीकी से देखने पर विदित क्षतात्किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः। __ होता है कि उसमें इसी तत्त्व की प्रकारान्तर से प्रतिष्ठा की गई है।
अर्थात् क्षत्रिय शब्द पृथिवी पर 'आपत्ति से रक्षा करना' इस इसमें सन्देह नहीं कि इससे किसी हद तक व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ में रूढ़ है।
घात होता है और व्यक्ति को आर्थिक दृष्टिकोण से समष्टि के अधीन इससे स्पष्ट है कि बहुत प्राचीन काल की बात तो जाने रहने के लिए बाध्य होना पड़ता है किन्तु वर्तमान उत्पादन और दीजिए महाकवि कालीदास के काल में क्षत्रिय नाम की कोई जाति वितरण की प्रणाली के चालू रहते इस दोष के प्रक्षालन का अन्य विशेष नहीं मानी जाती थी। किन्तु जो अभिरक्षा द्वारा अपनी आजीविका कोई उपाय भी नहीं हैं। करते थे ते ही क्षत्रिय कहे जाने थे।
प्राचीन काल में कृषक को ही सर्वेसर्वा माना गया था। क्षत्रियवर्ण के कार्य में अभिरक्षा शब्द अपना विशेष महत्त्व वही उत्पादक था और वही वितरक। उस समय आज के समान रखता है। शासन की नीति क्या हो यह इस शब्द द्वारा स्पष्ट किया गया कृषकों से व्यापारियों का स्वतन्त्र वर्ग न था। यह बात इसी से है। आक्रमण और सुरक्षा ये शासन-व्यवस्था के दो मुख्य अंग माने जाते स्पष्ट है कि उस समय कृषि और वाणिज्य (व्यापार) एक ही व्यक्ति हैं। किन्तु आक्रमण करना यह क्षत्रियों का काम न होकर मात्र परचक्र से के हाथ में रख्ने गए थे।
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