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जैनधर्म और वर्णव्यवस्था
पं० फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री'
भारतवर्ष को स्वराज्य मिलने के बाद भारत सरकार और बात साफ है। जैन हिन्द नहीं हैं यह कहना तो उनका जन प्रतिनिधियों का इस ओर ध्यान गया है। भारतीय संविधान सभा बहाना मात्र है। वास्तव में वे केवल इतना ही चाहते हैं कि जैन ने जिस संविधान को स्वीकार किया है उसमें दो सिद्धान्त निश्चित रूप मन्दिरों में अस्पृश्यता पूर्ववत् कायम बनी रहें। से मान लिए गए हैं।
वे ऐसा क्यों चाहते हैं, इसका कारण बहुत स्पष्ट है। किन्तु १. हम मनुष्यों में किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता नहीं मानते। हम उसमें जाना नहीं चाहते। हमारे सामने मुख्य प्रश्न संस्कृति का है। २. हिन्दुओं के प्रत्येक सार्वजनिक स्थान और सम्पत्ति का, चाहे वह आगम इस विषय में क्या कहता है, हमें तो यहाँ इसी बात का मन्दिर, धर्मशाला या ट्रस्ट ही क्यों न हो, सभी हिन्दू समान रूप से निर्णय करना हैं। उपयोग कर सकते है।
यह तो मानी हुई बात है कि हिन्दू शब्द किसी धर्म विशेष भारत की दो प्रमुख संस्कृतियाँ का वाची नहीं है। सदरपूर्व काल से जितने धर्मों के मनुष्य यहाँ उस भी सर्वप्रथम हमें यह देखना है कि वर्ण क्या वस्तु है निवास करते थे और जिन धर्मों के प्रवर्तक यहाँ जन्मे थे वे सब हिन्दू और उसकी स्थापना यहाँ किन परस्थितियों में हुई। यह तो सर्व शब्द की व्याख्या में आते हैं। इस व्याख्या के अनुसार न केवल विदित है कि भारतवर्ष में श्रमण और वैदिक दो संस्कृतियां मुख्य हैं। वैदिक धर्म के अनुयायी हिन्दू ठहरते हैं अपितु जैन बौद्ध और सिख इन दोनों के आचार-विचार और क्रिया-कलाप में महान् अन्तर है। ये भी हिन्दू ही माने जाते हैं। संविधान की २५ वी धारा के नियम वैदिक संस्कृति मुख्य रूप से ईश्वरवादियों की परमपरा है और श्रमण नं०२ में इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि- संस्कृति स्वावलम्बियों की परम्परा है। इन दोनों में पूर्व पश्चिम का ___Hindu Includes Jain, Baudha and Sikhas. अन्तर है। पतञ्जलि ऋषि ने हजारों वर्ष पहले अपने भाष्य में इसे
जहाँ तक हम देखते हैं सिखें और बौद्धों को इसमें कोई स्वीकार किया है। वे इन दोनों के विरोध को अहि-नकूल (साँप आपत्ति नहीं है। वे इस तथ्य को न केवल स्वीकार करते हैं अपितु न्योला) के समकक्ष का मानते हैं। 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेत् इसका प्रचार भी करते हैं, क्योंकि इसमें वे अपना सांस्कृतिक लाभ जेन मन्दिरम्' आदि वचन इसी विरोध के सूचक हैं। इसलिए जब देखते हैं। राहुल जी ने अनेक बार लिखा है कि हमें किसी भी हालत कभी हम सांस्कृतिक दृष्टि से विचार करते हैं तब हमें इनके अन्तर में अपने को हिन्दू कहलाना नहीं छोड़ना है।
को सामने रखना आवश्यक हो जाता है, अन्यथा पदार्थ का निर्णय किंत् कुछ रूढ़िवादी जैन इस तथ्य को स्वीकार करने से करने में न केवल कठिनाई आती है अपितु दिशाभ्रम होने का भय हिचकिचाते है। उनके सामने मुख्य प्रश्न जैन मन्दिरों का है। उन्हें रहता है। भय है कि हिन्दू शब्द को उक्त व्याख्या माने लेने पर हमें जैनमन्दिर कथित अस्पश्यों को खोलने पड़ेंगे जब कि वे इसे लिए वर्ण शब्दकी व्याख्या तैयार नहीं है।
वर्ण क्या है यह प्रश्न बहत कठिन नहीं है। इसका अर्थ इस समय जैन समाज में विवाद दो स्तरों पर चल रहा है। आकार या रूप रंग होता है। प्राचीन ऋषियों ने इसी अर्थ में इसका प्रथम तो यह कि 'जैन हिन्दू हैं या नहीं' और दूसरा यह कि 'अस्पृश्य योग किया था। उन्होंने मनुष्यों के रूप रंग की जानकारी के लिए जैन मन्दिरों में जा सकते हैं या नहीं।' प्रथम प्रश्न ऐतिहासिक हैं और उनकी आजीविका और चर्या को मुख्य साधना माना था। मनुष्य जन्म दूसरा सांस्कृतिक ।
से अपनी आजीविका लेकर नहीं आता। किन्तु वह जिन परिस्थितियों कुछ जैनों का ख्याल है कि सरकार से 'जैन हिन्दू नहीं है' में बढ़ता है और उसे अपने विकास के जैसे साधना उपलब्ध होते हैं इस बात के स्वीकार करा लेने पर 'कथित अस्पृश्य जैन मन्दिरों में उनके आधार से उसकी आजीविका निश्चित होती है। डॉ० अम्बेडकर जा सकते हैं या नहीं' इस प्रश्न के अलग से निर्णय कराने की आजकी कथत 'महार' जाति मे जन्म है। 'महार' दक्षिण में एक आवश्यकता नहीं रहती। वे सोचते है कि इस तरह जैन मन्दिर उन अछूत जाति है। इनके माता-पिता इसी जाति के अंग थे। किन्तु आज कानुनों से अपने आप बरी हो जाते हैं जो कथित अस्पृश्यों को वे कानून के महान् पण्डित है। भारत को उनपर नाज है। वे भारतीय मन्दिर प्रवेश का अधिकार देते हैं।
संविधान के मुख्य कर्ता धर्ता है। उनकी बुद्धि और प्रतिभा का विश्व
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