Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 206
________________ श्रमण और श्रावक का पारस्परिक से क्षमायाचना तक करनी होती है। अतः जो यह समझते हैं कि मुनि श्रेष्ठ हैं और वह चाहे कैसा भी हो और गृहस्थ को उसके नियंत्रण का कोई अधिकार नहीं है वे एक प्रांति में हैं। भाष्य और चूर्णि साहित्य में ऐसे अनेक कथानक हैं जिनमें गृहस्थों को शिथिलाचारी साधुओं के वन्दन और उन्हें भक्ति पूर्वक आहार आदि देकर उनका संरक्षण करने का निषेध किया गया है। साधुवर्ग के प्रति श्रद्धा और सम्पोषण के दायित्व के साथ-साथ उनके चरित्र का सजग प्रहरी होना भी गृहस्थ का दायित्व है। प्रायश्चित्त व्यवस्था के सन्दर्भ में भाष्यचूर्णि साहित्य में ऐसे स्पष्ट उल्लेख हैं कि आचार्य आदि के अभाव में साधु योग्य श्रावक के समक्ष भी अपनी आलोचनाकर सकता है और प्रायश्चित्त ले सकता है। इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं कि भ्रमण संघ के प्रशासन में उसका पूरा अधिकार था। हां इस सन्दर्भ में इतनी सजगता आवश्यक है कि श्रावक को श्रमण संघ को अनुशासित करने का अधिकार तक ही प्राप्त होता है जब वह स्वयं चरित्रवान् हो एवं आगमज्ञ हो । प्राचीनकाल में श्रावकों में आगमों के अध्ययन की परम्परा थी। भगवतीसूत्र में पाश्चांपत्य श्रावकों के द्वारा और जयन्ती श्राविका के द्वारा महावीर से अनेक प्रश्नों पर चर्चा के प्रसंग मिलते हैं। यदि श्रावक और श्राविका वर्ग के अध्ययन का निषेध यह तो मध्यकाल की ही देन है कि जब चैत्यवास का विकास हुआ और साधुओं के सामने यह प्रश्न खड़ा हो गया कि यदि गृहस्थों में आगम का पठन-पाठन होगा, तो वे मुनि के आगमिक आचार और वर्तमान आचार के अन्तर को जान जायेंगे, फलतः उनमें उनके प्रति अश्रद्धा का भाव उत्पन्न होवेगा। अतः श्रावक को आगमों के अध्ययन का जो निषेध किया गया उसके पीछे चैत्यवासी मुनियों का शिथिलाचार ही प्रमुख कारण था। प्राचीन आगमिक व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दान के क्षेत्र में पात्र अपात्र का विचार मात्र इतना ही नहीं, बल्कि उसमें पात्र में भी श्रेष्ठ, मध्यम और अधम की भी चर्चा है। यदि श्रावक मुनि संघ के आचार का सजग प्रहरी नहीं माना जा सकता है तो फिर उसे पात्र-अपात्र का विचार करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। हम यह भी देखते हैं कि परवर्ती काल में पात्र-अपात्र सम्बन्धी विचार की इस अवधारणा का आचार्यों ने विरोध भी किया और यहां तक कहा गया कि गृहस्थ के लिए मुनिवेश ही पर्याप्त है उसे उनके सम्बन्ध में पात्र-अपात्र का विचार नहीं करना चाहिए । ५ भगवतीसूत्र में पारर्श्वापत्य श्रावकों के द्वारा और जयन्ती श्राविका के द्वारा महावीर से अनेक प्रश्नों पर चर्चा के प्रसंग मिलते हैं। यदि श्रावक और श्राविका वर्ग आगम और धर्म सम्बन्ध में ज्ञान और जिज्ञासा नहीं रखता तो इसप्रकार की चर्चाएं सम्भव नहीं थीं। पुनः उपासकदशांग आदि आगम तो पूर्णतया श्रावक वर्ग से सम्बन्धित है। उनका अध्ययन साधु की अपेक्षा गृहस्थ के लिए ही आवश्यक है। मात्र यही नहीं यापनीय परम्परा में छेदपिण्डशास्त्र और छेदशास्त्र Jain Education International सम्बन्ध : आगमों के आलोक में १६७ नामक ग्रन्थों में तो स्पष्ट रूप से श्रावक श्राविकाओं की प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है। इससे फलित यही होता है कि श्रावक-श्राविका वर्ग में आगम ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा थी। स्थानक वासी परम्परा में ऐसे अनेक श्रावक थे, जो बत्तीस ही आगमों के ज्ञाता थे। आधुनिक सन्दर्भ में गृहस्थ एवं मुनि संघ का सम्बन्ध आगमिक सन्दर्भों के आधार पर हमने श्रावक और साधुओं के पारस्परिक सम्बन्ध की जो चर्चा की, उसे वर्तमान सन्दर्भ में भी स्पष्ट कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा, क्योंकि प्राचीन काल की अपेक्षा भी आज दोनों की पारस्परिक निर्भरता अधिक हो गयी है। प्राचीन काल में जब मुनि संघ सामान्यतया वनों गिरिकन्दराओं में अथवा नगरों के बाहर निवास करते थे, तब गृहस्थों से उनका सम्बन्ध मात्र भिक्षा प्राप्त करने या गृहस्थों की जिज्ञासा पर उन्हें धर्मोपदेश करने से अधिक नहीं था, किन्तु चैत्यवास और नगरनिवास के साथ ही गृहस्थों और मुनियों के सम्बन्ध में अधिक प्रगाढ़ता आई है अब वे कदम-कदम पर श्रावकों पर आश्रित होते जा रहे हैं। आज न केवल उनके भोजन वस्त्र या चिकित्सा का उत्तरदायित्व गृहस्थों पर होता है अपितु उनके प्रवचन आदि की व्यवस्था करना, संचार साधनों के माध्यम से उन्हें प्रसारित करवाना, अपने एवं उनके अहं की तुष्टि के लिए अथवा जैन धर्म की प्रभावना के लिए बड़े-बड़े समारोहों को आयोजित करवाना, उसमें राजनेता आदि को आमंत्रित करवाना प्रभावना के हेतु विविध प्रकार के महोत्सव, तीर्थयात्राएँ एवं पूजा प्रतिष्ठा आदि का आयोजन करवाना- इन सब कार्यों के लिए मुनि संघ गृहस्थों पर ही निर्भर होता जा रहा है, मात्र यही नहीं आज दर्शनार्थ आये हुए उनके भक्तों के आवास, भोजन आदि की व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी स्थानीय संघों पर होता है। यह सब खर्च करवाने के लिए आज मुनि संघ को सामान्य श्रावकों की अपेक्षा पूंजीपतियों की अपेक्षा होती है, फलतः वह पूंजीपतियों की मुट्ठी में आता जा रहा है। अब उसकी स्वतन्त्रता धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि वह जितना जितना गृहस्थों पर आश्रित होगा उसकी स्वतन्त्रता और प्रामाणिकता सीमित होगी। दूसरी ओर आध्यात्मिक साधना में शिथिलता आयेगी। आज का जो पूंजीपति वर्ग है वह मुनियों की उपासना या सान्निध्य इसलिए नहीं पाना चाहता कि उससे उसका आध्यात्मिक या चारित्रिक विकास हो । उसकी साधु वर्ग से मुख्य अपेक्षा अपने भौतिक कल्याण को लेकर ही होती है। वह केवल इसलिए मुनियों के पास जाता है कि उनकी कृपादृष्टि आध्यात्मिक शक्ति अथवा तपोबल से उसका भौतिक कल्याण होगा तथा सम्पत्ति आदि में अभिवृद्धि होगी। इसप्रकार लौकिक ऐषणा और भौतिक आकांक्षा की पूर्ति के नाम पर सम्पत्तिवान् श्रावकों का एक वर्तुल खड़ा हो रहा है। लोगों में यह विश्वास प्रचलित हो गया है कि अमुक मुनि में विशेष प्रकार की दिव्य शक्ति, तपोबल आदि है जिससे उनका भौतिक कल्याण हो सकता है, उनके पीछे 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