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जैनधर्म और गुजरात
- स्व० मुनिश्री जिनविजय जी
परिस्थिति का धर्म पर प्रभाव हमें अपने धर्म, समाज और सिद्ध हो रहे हों तो हमें उनमें परिवर्तन करना ही चाहिए और नई संस्कृति के इतिहास का यथार्थ ज्ञान नहीं होता इसी से हम लोग परिस्थिति के अनुकूल नये नियम या सिद्धान्त का निर्माण कर लेना प्रजाकीय जीवन के विषय में अनेक प्रकार की भ्रमणाओं में फँस चाहिए। परिवर्तन तो प्रकृति का अबाधित नियम है। वस्तुमात्र में जाते हैं। धर्म और समाज के जिस वातावरण में हम जीते हैं उसी को रूपान्तर कर देना, यह तो काल का मुख्य स्वभाव है। समग्र चेतनहम शुद्ध और सनातन धर्म मान लेते हैं। देश-काल की परिस्थिति के अचेतन सृष्टि में प्रकृति का उक्त नियम व काल का वह स्वभाव बल से धर्म और समाज की नीतिरीति में सतत महत्त्वपूर्ण परिवर्तन अव्याहतरूप से प्रवर्तमान है। जिसकी उत्पत्ति है उसका नाश भी होते आए हैं और होते ही रहते हैं- इस विचार को हृदयंगम करने में अवश्यम्भावी है। अखण्ड ब्रह्माण्ड उस महानियम के अधीन है। फिर प्रजा की बुद्धि तत्पर नहीं होती और इसीलिए हम अपने प्रजाकीय अपना यह क्षुद्र मानव समाज उसमें अपवादभूत कैसे हो सकता है? जीवन के यथार्थ सुधार और उन्नति के उपायों को भी हमेशा शंका प्रकृति के उक्त नियम से विरुद्ध हम कैसे जा सकते हैं? और यदि
और भय की दृष्टि से देखते रहते हैं और इस प्रकार धार्मिक और अपनी अज्ञानता के कारण हम ऐसा करें तब भी प्रकृति को यह सह्य सामाजिक अधोगति के शिकार बन जाते हैं। धर्म या समाज के किसी कैसे होगा? अग्नि का स्वभाव दाह उत्पन्न करने का है। उसके इस भी नियम या सिद्धान्त का उद्भव विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थिति के स्वभाव की उपेक्षा करके यदि हम चलें तो क्या अग्नि अपनी कारण ही होता है। परिस्थिति के परिवर्तन के साथ ही सिद्धान्त और शक्ति का परिचय हमें न देगी? अज्ञान बालक को या श्रेष्ठ विद्वान नियम भी बदल ही जाते हैं और इस प्रकार परिवर्तनशील नियमों वृद्ध को अग्नि अपने स्वभाव का परिचय समान रूप से देगी। इसी
और सिद्धान्तों के कारण धर्म या समाज का नाश नहीं किन्तु विकास प्रकार प्रकृति भी अपने नियम की अवहेलना करने वाले धर्म या ही होता है। यह तथ्य तभी बँद्धिग्राह्य हो सकता है जब हमें ऐतिहासिक समाज को अपने स्वभाव का परिचय देती है। उसके नियमों को परिस्थिति का यथार्थ ज्ञान हो। ऐसे ऐतिहासिक ज्ञान के अभाव में पहचान कर तदनुकूल नियम और सिद्धान्तों का सर्जन यदि हम प्रत्येक प्रजा अपने धर्म के सिद्धान्तों और सामाजिक नियमों को ईश्वर करें तब तो हमारे विकास को प्रकृति पनपने देगी अन्यथा प्रकृति प्रेरित किसी दिव्य पुरुष के द्वारा वे स्थापित है- ऐसा मानने लगती हमारा नाश ही कर देगी। है और उनमें किसी प्रकार के परिवर्तन को अक्षम्य और अनिष्ट मानती हुई जो रोगनाश के लिए रामबाण औषध होती है उसी को धर्म की विडम्बना रोग की पोषक मान कर उससे दूर रहने का प्रयत्न करती है और धर्म और समाज की आधुनिक विचारहीन परिस्थिति के फलतः अपने ही नाश को आमन्त्रण देती है। अपनी जो धार्मिक और कारण हमारी प्रजा की नई पीढ़ी का प्रतिभाशाली और प्रगतिगामी सामाजिक अवनति हुई है और उसी के फलस्वरूप हम जिस प्रकार वर्ग विद्युद्वेग से परिवर्तनशील जगत् की परिस्थिति के साथ हमारी कितनी ही शताब्दियों से पराधीनता और पामरता के शिकार हो रहे प्रजाकीय गति-स्थिति का कोई मेल न देख कर अत्यन्त खिन्न हो रहा हैं उसका कारण अन्य कुछ भी नहीं है किन्तु हमारी प्रजा की वह है और उसे इस अवस्था का मूल कारण हमारा वर्तमान धार्मिक अज्ञानजन्य रूढ अन्ध-श्रद्धा ही है। धर्म का कोई सिद्धान्त या समाज वातावरण ही नजर आता है और इसी लिए वह धर्म के नाम से ही का कोई नियम त्रिकालबाधित हो ही नहीं सकता । उन सिद्धान्तों व घबराता है। नियमों को बनाने वाला कोई ईश्वर या मानवेतर शक्ति नहीं थी किन्तु उस वर्ग को ऐसा लगता है कि हमारे सभी प्रकार के हमारे जैसे ही शरीर और संस्कार को धारण करने वाले मनुष्य ही थे। सामाजिक अनिष्टों के मूल में भी धर्म है। धर्म ही ने मनुष्य-मनुष्य के देश-काल की परिस्थिति के अनुसार अपने जनसमूह के कल्याणार्थ च ऊँच-नीच भाव का भयानक भेदभाव स्थापित किया है। धर्म ही तत्तप्रकार के सिद्धान्तों और नियमों को स्थापित करने की आवश्यकता ने हमें किसी खास जाति के मानव समूह के प्रति अस्पृश्यता की उन्हें प्रतीत हुई और वैसा ही किया। जब तक वैसी परिस्थिति बनी अधम बुद्धि की सीख दी है। धर्म ही ने मानव समूहों में शत्रुभाव रहे और वे नियम तथा सिद्धान्त प्रजा को लाभकारक हों तब तक उत्पन्न व पृष्ट करने की भावना को जागत किया है। धर्म है उनका पालन आवश्यक होता है। किन्तु यदि परिस्थिति ने पलटा स्वातन्त्रय का विरोध करके बाल लग्न, वैधव्यबन्धन आदि अनिष्टकर खाया हो और वे नियम और सिद्धान्त लाभ के स्थान में हानिकारक रूढ़ियों द्वारा स्त्री जाति की सम्पूर्ण उन्नति का अवरोध किया है। धर्म
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