Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 217
________________ १७८ उतनी दूसरे वर्गों के लिए नहीं यह सूक्ष्म विचार करने पर स्पष्ट होता है। जैनधर्म की प्रकृति का जितना सुमेल वैश्यों की प्रकृति के साथ होता है उतना अन्य वर्णों की प्रकृति के साथ नहीं होता है। वैश्यों के जीवन व्यवसाय के साथ शान्ति का गहरा सम्बन्ध है । शान्तिमय परिस्थिति में ही व्यापार की वृद्धि और स्थिरता है अशान्त परिस्थिति व्यापारी की प्रकृति और प्रवृत्ति के लिए हमेशा प्रतिकूल होती है। जैन धर्म अत्यन्त शान्तिप्रिय धर्म है। हिंसा और विद्वेष उत्पन्न करने वाले तत्त्व जैनधर्म की प्रकृति के सर्वथा विरोधी तत्व हैं। इससे शान्तिप्रिय वर्ग के लिए जैनधर्म के तत्व अधिक सुग्राह्य और समादरणीय बन जाते हैं। युद्ध विजिगीषा, लूट इन तत्त्वों के उपासकों को जैनधर्म के तत्त्व प्रिय नहीं लगते। जैन जातियों के इतिहास को देखने से पता चलता है कि कुछ जैनाचार्यों के विशिष्ट प्रभाव से आकर्षित होकर सैकड़ों की संख्या में क्षत्रिय और किसानों ने जैन धर्म को स्वीकार किया था। किन्तु धर्मान्तर के साथ ही उन लोगों का व्यवसायान्तर भी करके उन्हें क्षात्रधर्म या कृषिकर्म का त्याग करके वैश्यवर्ण का व्यवसाय लेना पड़ा था। इस प्रकार व्यवसायान्तर के संस्कार बल से ही वे स्थैर्यपूर्वक जैन धर्म के पालन में समर्थ हुए हैं। इससे यदि मैं यह कहूँ कि जैन धर्म की प्रकृति के लिये बनिये अनुकूल हैं और बनियों को जैन धर्म, तो मेरा यह कथन सिर्फ हास्य के लिए ही नहीं हैं किन्तु पूर्णरूप से वस्तुसूचक भी है। यद्यपि यह कहने में कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है कि पूर्वकाल में गुजरात के सभी वैश्य जैनधर्म का पालन करते थे। किन्तु इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वल्लभाचार्य के संप्रदाय के प्रचार से पूर्व गुजरात में वैश्यों का बहुत बड़ा हिस्सा जैनधर्म का पालन करता था। यों तो धर्म के विषय में गुजरात की प्रजा में अति प्राचीन काल से उदार भावना का ही प्राबल्य रहा है। यही कारण है कि जैन, शैव और वैष्णव धर्मों के बीच गुजरात में कभी भी ऐसी कटुता उत्पन्न नहीं हुई जिससे परस्पर धर्मों में तीव्र विरोध की भावना जागृत हो सके। गुजरात के वैश्य कुटुम्बों में जैन, शैव और वैष्णव मत समान रूप से आवृत हुए हैं और आज भी यह आदर भाव कायम है। गुजराती प्रजा का यह विशिष्ट संस्कार है जिसके निर्माण में जैन धर्म की महत्वपूर्ण देन है। गुजरात का शिल्प स्थापत्य जैन विद्या के Jain Education International आयाम खण्ड- ७ इस प्रकार हमने देखा कि गुजरात में जैनधर्मी मुख्यतः वैश्यवर्ग है। उस वैश्यवर्ग का प्रधान जीवन व्यवसाय वाणिज्य व्यापार है। उस व्यवसाय के बल पर जैनों ने गुजरात में लक्ष्मी का ढेर लगा दिया है। व्यापार के अलावा जैसा पहले बताया गया है जैनों के एक वर्ग ने शासन कार्य में महत्त्वपूर्ण भाग लिया है और उससे भी उनके पास लक्ष्मी के भंडार भरपूर रहे हैं जैनधर्म के गुरुओं ने प्राप्त लक्ष्मी के सदुपयोग के लिए जैन श्रावकों को सतत प्रेरित किया और उस उपदेश के अनुसार श्रावकों ने भी दान-पुण्य आदि सुकृत्यों में लक्ष्मी का सद्व्यय किया है। जैन गृहस्थों के जीवन कृत्य में सबसे मुख्य स्थान जैन मन्दिर को दिया गया है। इससे प्रत्येक धनाढ्य जैन गृहस्थ की यह महत्त्वाकांक्षा रहती है कि यदि शक्ति और सामग्री प्राप्त हो तो छोटेमोटे एक नये जैन मन्दिर का निर्माण करना और यदि उतनी शक्ति न हुई तो सामुदायिक रूप से भी मन्दिर या मूर्ति के निर्माण में या उसकी पूजा-प्रतिष्ठा करने में यथाशक्ति सहयोग करना, इस प्रकार जैसे भी हो अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग उक्त कार्य में अवश्य करना। मन्दिर निर्माण को उस काल के जैनाचार्यों ने जो इतना महत्त्व दिया और उस कार्य के द्वारा पुण्य प्राप्ति की महत्त्वाकांक्षा को जागृत करने के लिए श्रावकों को आचार्यों ने जो लक्ष्मी की सार्थकता का सतत उपदेश दिया उसी से जैनों ने गुजरात में आज तक हजारों जैन मंदिरों का निर्माण किया और लाखों की संख्या में जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई । गुजरात के छोटे-बड़े प्रायः सभी ग्राम - नगरों में छोटे-बड़े असंख्य जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ और इस प्रकार गुजरात की स्थापत्य कला का अद्भुत विकास सिद्ध हुआ। उन सुन्दर और सुरम्य मन्दिरों के अस्तित्व से गुजरात के कितने ही क्षुद्र ग्रामों को नगर की शोभा प्राप्त हुई और नगरों को अपनी सुन्दरता के कारण स्वर्गपुरी की विशिष्ट आकर्षकता मिली। दुर्भाग्य से गुजरात के उन दिव्य देवमन्दिर और भव्य कला धामों का विधर्मियों के हाथों से व्यापक विध्वंस हुआ है और आज तो उनमें से सहसांश भी विद्यमान नहीं फिर भी जो थोड़े बहुत अवशेष बचे हैं उनके दर्शन से गुजरात की स्थापत्यकला के विषय में आज हमको यत्किन्चित स्मृति संतोष हो सके ऐसा आह्लाद होता है, उसके लिए हमें जैनों को ही धन्यवाद देना चाहिए। " शत्रुंजय, गिरनार, ताना, आबू और पावागढ़ जैसे गुजरात के पर्वत शिखर जो आज प्रवासियों के आकर्षण का विषय बने हुए है, उनके ऊपर यदि जैनों के द्वारा निर्मित देव मन्दिर नहीं होते, तो उनका नाम भी कौन याद करता? अहमदाबाद में मुसलमानों की मस्जिदों को छोड़कर यदि हठीभाई का जैन मन्दिर नहीं होते तो वहाँ दूसरा ऐसा कौन सा हिन्दू स्थापत्य का सुन्दर कलाधाम है जिसे हिन्दू अपनी जातीय शिल्पकला के सुन्दर स्थान के रूप में पहचानते ? अवनति के इस अन्तिम युग में भी जघडिया, कावी, छांणी, मातर, बारेजा, पेचापूर, पानसर, सेरिसा, शंखेश्वर, भोयणी, मेत्राणा आदि अनेक छोटे गाँवों में और दूर जङ्गलों में जैनों ने लाखों रूपया खर्च करके भव्य मन्दिरों का निर्माण किया है और ऐसा करके देश की शोभा में सुन्दर अभिवृद्धि की है, सेरीसा, शंखेश्वर, पानसर और भोयणी जैसे अत्यन्त क्षुद्र ग्राम भी आज भव्य जैन मन्दिरों के शिखरों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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