Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 222
________________ १८३ जैनधर्म और गुजरात को सुरक्षित रखने के लिये उन्होंने ऐतिहासिक-अर्धऐतिहासिक ऐसे मुख्य ध्येय था। गुजरात की शक्ति और संस्कृति के विषय में संख्याबद्ध प्रबन्धों की रचना की है। गुजरात के राष्ट्रीय इतिहास का यत्किन्चित् भी आक्षेप या लघुता हो- यह उनको स्वप्न में भी असह्य जितना संरक्षण जैनों ने किया है उसका सहस्रांश भी जैनेतरों ने नहीं था। उनके इस उत्कट देश प्रेम और संस्कार रुचि ने उन्हें अपने देश किया। धार्मिक मनोवृत्ति की संकीर्ण भावना के कारण यदि जैनों की में रुद्रमहालय, त्रिपुरप्रासाद, और सोमेश्वर आदि सैकड़ों भव्यमहालयों उस महान् राष्ट्र देन की कीमत कम आंकी जाय या उसे अस्वीकार के निर्माण की प्रेरणा दी, कर्णसरोवर, मिनलसरोवर, सिद्धसर जैसे किया जाय तो एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह ही समझा जाना चाहिए। अनेक महासरोवरों के निर्माण के लिए उत्साहित किया, स्थान-स्थान गुजरात के पास उसके अपने सन्तानों की रचना के रूप में पर सुन्दर तोरण और कीर्तिस्तम्भ खड़े करने को उत्कंठित किया, ज्ञान-विज्ञान के सर्व विषयों की उत्तमोत्तम कृतियाँ विद्यमान हैं। इस बड़े-बड़े सारस्वत भाण्डारागार स्थापित करने और सत्रागार सहित प्रकार से जैनों ने गुजरात को साहित्य साम्राज्य की दृष्टि से सर्वतन्त्र विद्यामठों को स्थापित करने के लिए प्रवृत्त किया। स्वतन्त्र राष्ट्र बनाया है। वस्तुत: गुजरात के साहित्यिक समृद्धि के भण्डारों को नपों का धार्मिक समभाव और उसका फल परिपूर्ण करने का यश जैनों को है फिर भी उत्तम साहित्य सर्जन धर्म और उपासना के विषय में वे अतीव समदर्शी थे। की प्रेरणा जैनों ने कहाँ से और किस प्रकार ली उसका भी तनिक उनके समय में गुजरात में मुख्यरूप से दो ही प्रजाधर्म प्रवर्तित थेविचार हो जाना चाहिये। यद्यपि यह विवेचन विस्तृत होना चाहिए। शैव और जैन। चौलुक्यों का कुलधर्म शैव था फिर भी वे जैनधर्म के उसकी पूर्वभूमिका का पता लगाने के लिए हमें गुजरात के पुरातन प्रति पूर्ण सद्भाव रखते थे। जैनमंदिरों को राज्य की ओर से पूजाइतिहास के बहुत से पन्ने उलटने पड़ेंगे जिसके लिए यहाँ सेवा के लिये अधिक मात्रा में भूमिदान आदि दिये जाते थे। पर्व और अवकाश नहीं है, फिर भी अत्यन्त संक्षिप्त रूप में उसके विषय उत्सवों के प्रसंग में राजा लोग खूब धूमधाम से जैन मन्दिरों में जाते में कुछ बातें कह देता हूँ। थे और श्रद्धापूर्वक स्तुति प्रार्थना करते थे। उनकी ऐसी धार्मिक समदर्शिता और संस्कारप्रियता के गुजरात की अस्मिता का उत्थान कारण जैन आचार्य विशेष रूप से आशान्वित थे। अत: उस राज्य गुजरात के सुवर्ण काल के प्रस्थापक चौलुक्य नृपति उत्कट की महत्ता और कीर्ति बढ़े ऐसा हृदय से चाहते थे और तदनुसार स्वदेश प्रेमी थे। उनकी महत्त्कांक्षा गुजरात को भारत का मुकुटमणि प्रवृत्ति करते थे। चौलुक्यों के शासन काल में जैनधर्म को उत्तम बनाने की थी। शक्ति, संस्कृति और समृद्धि में गुर्जर देश अन्य देशों संरक्षण मात्र ही मिला हो यह बात नहीं, बल्कि उत्तम पोषण भी की अपेक्षा तनिक भी-पिछड़ न जाय उनकी साम्राज्य नीति का यह मिला था। इससे जैन विद्वान् निर्भय, निश्चिंत और निश्चलमना होकर महनीय मुद्रालेख था। वे जितने शौर्यपूजक थे उतने ही संस्कारप्रिय अणहिलपुर तथा उसके आस-पास के सुस्थान और सुग्रामों के भी रहे। साहित्य, संगीत, स्थापत्य आदि सत्कलाओं का उनको शौक उपाश्रयों में बैठ कर उक्त प्रकार की विविध साहित्यिक रचना करके था। कलाकोविदों के वे श्रद्धाशील भक्त थे। वे अपने शौर्य बल से गुजरात की प्रजा को ज्ञान से समृद्ध करते थे; गजरात की गणगरिमा जिस प्रकार गुजरात के साम्राज्य की सीमा का विस्तार चाहते थे, उसी की वृद्धि करते थे। गुजरात के ऐसी ज्ञान गरिमा के कारण ही उसे प्रकार उत्तमोत्तम स्थापत्य की रचना द्वारा गुजरात के नगरों की शोभा "विवेक बृहस्पति" का सम्मानास्पद विरुद् मिला था। और ऐसी बढ़ाना चाहते थे। विद्वान और विशेषज्ञों का समूह संग्रह करके उनके स्थिति की उत्पत्ति में उक्त प्रकार से जैनाचार्यों ने अग्र भाग लिया था। द्वारा साहित्य रचना करवाते थे और इस प्रकार गूर्जर प्रजा की ज्ञान ज्योति को विकसित करते थे। भारत के अन्य राज्यों में जैसे-जैसे गुजरात में सदाचार वृद्धिविशिष्ट देवस्थान या जलाशय आदि स्थापत्य के सुन्दर कार्य हए हों सदाचार के विषय में भी जैनधर्म ने गुजराती प्रजा की या होते हों वैसे कार्य गुजरात में भी होने चाहिए। दूसरे प्रान्तों में जैसे समुन्नति में सविशेष भाग लिया है। जैन धर्म आचार प्रधान धर्म है; विद्यापीठ और सारस्वत भण्डार विद्यमान हों वैसे विद्यापीठ और यम-नियम, तप-त्याग आदि के विषय में जैन धर्म में पर्याप्त भार भण्डार गुजरात में भी होने चाहिए। भारत के अन्य राजदरबारों में दिया जाता है। अहिंसा तो जैन आचार-विचार का ध्रुव बिन्दु ही है। जैसे समर्थ विद्वान, पण्डित, कवि, मन्त्री, राजदूत, सेनानायक, उसी को लक्ष्य करके जैन धर्म के सभी आचारों का संविधान हुआ नीति-विशारद, व्यापार प्रवीण और अन्य कलानिपुण पुरुष विद्यमान है। अहिंसा की सम्पूर्ण व्याख्या तो बहुत गहन है। स्थूल व्याख्या हों वैसे या उनसे भी बढ़कर श्रेष्ठ पुरुषरत्न गुजरात की राजसभा को यह है कि मनुष्य को किसी भी मनुष्य-पशु आदि किसी जीव की शोभित करने वाले होने ही चाहिए- यही उनकी साम्राज्य जिगीषा का हिंसा नहीं करनी चाहिए, किसी भी प्राणी का नाश नहीं करना Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306