Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 223
________________ १८४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ चाहिए। इस स्थूल व्याख्या के भी उत्सर्ग अपवाद आदि भेद-प्रभेद विशिष्ट दयाभाव युक्त और दुःखित जनों को उदारतापूर्वक दान और गौण-मुख्य आदि विविध प्रकार हैं। उसकी सूक्ष्मता में जाना देने वाली है-ऐसी ख्याति है। उन गुणों की उन्नति गुजरात में जो यहाँ अनावश्यक है। हुई है उसका कारण जैन संस्कारों की सतत प्रेरणा और प्रोत्साहन सामान्यतः इतना जानना आवश्यक है कि जैन धर्म की रहा है ऐसा मेरा नम्र मत है। दीक्षा का सर्व प्रथम और सर्व प्रधान नियम है जीव हिंसा का त्याग। गुजरात में पिछड़ी हुई जाति का मनुष्य भी सर्प, बिच्छू जो मनुष्य स्थूल जीव हिंसा का भी त्याग नहीं कर सकता वह जैन जैसे भयङ्कर विषैले जीवों का भी बिना कारण घात करने में पाप धर्म का अनुयायी भी नहीं हो सकता। मांसाहार के लिए ही प्रायः मानेगा और कारण मिलने पर भी उनकी हत्या करने में संकोच का मनुष्य स्थूल जीव हिंसा करते हैं। मांसाहार के निमित्त से ही जगत् में अनुभव करता है। इसके विपरीत अन्य प्रदेशों में रहने वाला उच्च नित्य प्रति लाखों-करोंड़ों पशु, पक्षी, मछली आदि प्राणियों का ब्राह्मण जन भी सदि का नाम मात्र सुन कर उसकी हत्या करने को संहार होता है। यह संहार तभी कम हो सकता है जब मनुष्य मांसाहार उत्साहित हो जाता है। गुजरात का किसान गर्मी के दिनों में शुल्क को कम करे। इस दृष्टि से जैन मांसाहार के सबसे अधिक विरोधी रहे होने वाले तालाबों की मछलियों की सुरक्षा के लिए अनेक प्रयत्न हैं। जहाँ जहाँ उनके वश की बात हो वहाँ-वहाँ में मांसाहार का निषेध करता हुआ नजर आता है जब कि बिहार आदि प्रदेशों का ब्रह्मवादी करने-कराने में प्रयत्नशील रहते आये हैं। सचमुच ऐसा करके वे और सर्व शास्त्र पारगामी भूदेव भी मछलियों के मारने और मरवाने जीवहिंसा को कम करने में अपनी शक्ति का पूरा उपयोग करते आये की व्यवस्थित प्रतृत्ति में लीन हुआ देखा आता है। हैं। अकबर बादशाह जैसे मुगल सम्राट को भी जैनाचार्यों ने अपने सदुपदेश द्वारा हिंसा के निषेध की ओर सुरुचिसंपन्न बना दिया था। पिंजरा पोल संस्था इसी से उन्होंने अपने साम्राज्य में वर्ष में कई दिनों तक जीव हिंसा अनाथ और अपंग पशुओं के पालन-पोषण और संरक्षण न करने के फरमान निकाले थे, तथा उन्होंने स्वयं भी वर्ष के अमुक करने वाली पिंजरा पोल जैसी प्राणी दया की पुण्यसंस्था स्थापित मासों में और दिनों में मांसाहार सर्वथा न लेने का नियम ले रखा था। करने का सबसे पहला श्रेय गुजराती प्रजाजन को ही मिलना चाहिए। यह तो कहा ही जा चुका है कि चौलुक्यों के शासन काल मारवाड़, मेवाड़ और मालवा आदि प्रदेशों में इस संस्था का जो में गुजरात में जैनों का काफी प्रभाव था इसके अलावा उस वंश का अस्तित्व है वह भी गुजरात के ही अन्दर से है। पिंजरापोल संस्था के सबसे प्रतापी और शूरवीर राजा कुमारपाल जैनधर्म में सम्पूर्ण श्रद्धावान् प्रधान प्रचारक और संचालक जैन हैं यह सर्वविदित है। यह एक होकर अपनी उत्तरावस्था में उसने गृहस्थोचित दृढ़ दीक्षा भी स्वीकृत दूसरी बात है कि आज वह पिंजरापोल संस्था उसके अज्ञान और की थी। उस राजा ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में जीवहिंसा को रोकने असमयज्ञ संचालकों द्वारा अत्यन्त दयाजनक और दुर्व्यवस्थित दशा के लिए आग्रहपूर्वक राजाज्ञाएँ दी थीं और मांसाहार न करने के लिए को प्राप्त है, तब इससे विचारशील वर्ग द्वारा यह निन्दा की पात्र भी तथा देवी-देवताओं को बलि न चढ़ाने के लिए राज्य घोषणाएँ की हुई है। किन्तु यह दोष व्यवस्था का है संस्था का नहीं। थीं। मांसाहार और जीवहिंसा के निषेधक-ऐसे सतत आदेशों और संस्था का मूल उद्देश्य तो प्राणियों की शुद्ध सेवा का है प्रचार के कारण गुजरात की प्रजा में से ये बातें बहुत कम हो गईं। और तद् द्वारा मानव हृदय की भूतदया की भव्यभावना के विकास आज समस्त हिन्दुस्तान में गुजरात ही ऐसा है जहाँ सबसे कम का है। जैन इस कार्य में प्रतिवर्ष आज भी लाखों रूपयों का खर्च मांसाहार है और सबसे कम जीव-हिंसा होती है। मांसाहार के निषेध करते हैं। जितना ध्यान अनाथ एवं असमर्थ जैन बालकों के संरक्षण के साथ ही मद्य और व्यभिचार के निषेध के लिए भी गुजारात में ही और पालन पोषण में भी नहीं दिया जाता है यह स्पष्ट है, किन्तु अधिक प्रयत्न किया गया है। व्यवस्था के दोष के कारण इस कार्य में प्रायः पुण्य के स्थान में कुछ गुजरात के उच्च गिने जाने वाले प्रजावर्ग में उन दुर्व्यसनों पाप का भी उपार्जन किया जाता होगा। समयानुकूल सुव्यवस्था के का सर्वथा तो नहीं किन्तु अत्यधिक मात्रा में भी जो प्रशस्य अभाव फलस्वरूप यह संस्था आज हमारे दरिद्र देश के लिए अनेक प्रकार देखा जाता है उसका कारण पूर्वकालीन जैन आचार्यों के उपदेश से अधिक उपयोगी हो सकती है। का प्रभाव ही है। गुजरात में मद्य का प्रचार सिर्फ तथाकथित निम्न जातियों में है और वह भी अंग्रेजों के शासन काल में ही बढ़ा है। अहिंसा विषयक आक्षेप का उत्तर मांस, मद्य और व्यभिचार की प्रबलता के अभाव में प्रजा में खून जीवदया की ऐसी प्रवृत्ति और तद् द्वारा की जाने वाली और संत्रास की प्रवृत्ति भी कम हो यह स्वाभाविक है। समस्त अहिंसा की पुष्टि के विषय में कभी-कभी यह आक्षेप सुनाई देता है भारतवर्ष में आज गुजराती प्रजा शान्तिप्रिय, सौम्यस्वभावसम्पन्न, कि जैनों के इस अहिंसा प्रचार के कारण प्रजा में शौर्यवृत्ति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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