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लम्पटता, लालसा, अधिकार - लिप्सा, महत्त्वाकांक्षा, धर्मान्धता और कामवासना रही हैं। सहिष्णुता, जातिवाद, वर्गवाद आदि पनपने लगते हैं और इनके कारण अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न, हत्या आदि होती है। इस विशृंखलता से बचने के लिए ऊपर लिखे गये कर्तव्यों की निष्ठा आवश्यक है। कर्तव्यनिष्ठा लोकसंग्रह का भी मंत्र हैं और ऊँची से ऊँची आध्यात्मिक उपलब्धि का भी सम्बल है। इससे चित्त की वृत्तियाँ संकीर्ण स्वार्थपरता से हटकर उदात्त, सहिष्णु और सेवापरायण बनती हैं।
वैदिक परम्परा में समाज व्यवस्था चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) एवं चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शुद्र) के रूप में गठित है। श्रमण (जैन और बौद्ध) परम्परा में वैदिकों की तरह वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं है. उनमें मुनि (भिक्षु), आर्यिका (भिक्षुणी) श्रावक (श्रमणोपासक) और श्राविका (श्रमणोपासिका) चार संघरूप है। प्रस्तुत लेख में तो करें), किसी को दुःख न हो अथवा
केवल परिवार और समाज के तल पर मनुष्य के अधिकारों और कर्तव्यों का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है, अतः अधिक विस्तार यहाँ संभव नहीं है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
हुआ।
२. राजनैतिक सत्ता की दृढ़ता के लिए कुछ नैतिक नियमों का सृजन किया गया और उसका पारलौकिक महत्त्व बताकर उसे धर्म का रूप दे दिया गया।
३. दुर्बल, दलित, शोषित और हताश मनुष्यों को भाग्य के नाम पर संतोष कराने के लिए परलोक में सुख-सुविधा की कल्पना धर्म और अध्यात्म के माध्यम से दी गई।
५. आजीविका की शाश्वता के हेतु क्रियाकाण्ड, पूजा - विधान, मठ-मंदिर आदि प्रतिष्ठापित किए गए।
६. परिग्रह और शोषण की वैधता सिद्ध करने के लिए प्राप्त एवं संगृहीत वैभव, अनुकूल परिस्थिति, समृद्धि
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आदि को प्रारब्ध, पुण्योदय, पूर्व जन्मों के दानादि सत्कर्मों का फल बताया गया ।
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वैदिक परम्परा में राजा को ईश्वर का रूप माना गया है। बैर, पाप, अपमानादि को तज कर सुखी हों। इसका अर्थ यह है कि राजा शारीरिक और मानसिक दोनों तलों का शासक है। जैसे शासन-सूत्र के सफल संचालन के लिए आवश्यकतानुसार नियम-उपनियम, धारा उपधारा, विधि-विधान, दण्ड पुरस्कार आदि बने, वैसे ही मानसिक और आध्यात्मिक विषमताओं, विकृतियों आदि को अनुशासित करने के लिए धार्मिक आचार, विचार, नियम, कर्मकाण्ड, दर्शन, ज्ञान आदि व्यवस्थाएँ बनीं और पाप-पुण्य स्वर्ग-नरक आदि की परिकल्पनाएँ की गई। धर्म की उत्पत्ति के अनेक हेतु देखने-सुनने में आते हैं। यथा
भोगभूमि के काल में मनुष्य के लिए किसी प्रकार के नियम नहीं थे, उनकी आवश्यकता भी नहीं थी। कहीं स्व-पर विरोध नहीं था। परिग्रह, शोषण, अपहरण, व्यभिचार, कपट और हिंसा भी नहीं थी । मनुष्य पक्षी की भाँति स्वतंत्र, आकाश की भाँति अलिप्त, दर्पण की भाँति निर्मल, मधुकर की भाँति अल्पलाभ-संतुष्ट और भविष्य की चिन्ता से मुक्त एवं निर्भय था। कर्मभूमि के उदय के साथ उसके नैसर्गिक आचार में भी विकार आने लगा और अमृतमय जीवन में स्वार्थ का विष घुलने लगा, इससे जनमानस क्षुब्ध होने
१. धर्म की उत्पत्तिभय से और उसका पालन अन्धविश्वासों लगा। जिस जीवन में भौतिक वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक की गोंद या पालने में संग्रह परिग्रह होता है वह परिवार अथवा समाज के लिए उपयोगी नहीं होता। जब मानव दानव बन जाता है तो पीड़ितों के त्राण, उनमें ज्ञान का अमृत प्रवाहित करने और भूले हुए स्वरूप की सुधि कराने के लिए समय-समय पर दार्शनिक, ऋषि, अवतार, तीर्थंकर आदि महामानव आते हैं।
महावीर स्वामी के काल में 'धर्म के मामले में मानव अपनी विकृतियों का दास बना हुआ था वैयक्तिक स्वातंत्र्य समाप्त हो चुका ४. वर्ग- स्वार्थ ने भी अपनी सुरक्षा और आजीविका के था और मानव के अधिकार तानाशाहों द्वारा समाप्त किए जा रहे थे। लिए धर्म का स्वांग रचा।
मानवता कराह रही थी और उसकी गरिमा खण्डित हो चुकी थी। धर्म राजनीति का एक भोथरा हथियार मात्र रह गया था।' (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग १, पृ० ७२ । ) महावीरस्वामी ने ३० वर्ष तक यथाजात नैसर्गिक अविरुद्ध और शुद्ध सात्विक जीवन आचार-विचार का स्वयं व्यवहार करते हुए घूम-घूम कर
७. स्व- पर कल्याण की भावना से और सर्वोदय- समाज की रचना के उद्देश्य से कुछ कल्याणेच्छु महामानवों ने अविरुद्ध, शुद्ध और सात्विक जीवन के द्वारा एक प्रकार की 'रहनि' की शिक्षा दी और स्वयं उसका आचरण करने के कारण उसे धर्म या स्वभाव की संज्ञा दी। ऐसे महात्माओं की दृष्टि में कोई छोटा-बड़ा, नीचऊँच, पापी- पुण्यात्मा नहीं था। उनकी दृष्टि में सर्वहितैषिता अर्थात् जीव मात्र की सुख-शान्ति थी। वसुधैव कुटुम्बकम् उनका मंत्र था और उनका घोष था।
सर्वे सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् || -सभी सुखी हों, निरोग हों, सब कल्याण को देखें (प्राप्त
जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेशव्यसनवर्जिताः । प्राप्नुवन्तु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम् ।।
- सभी जीव कष्ट या आपदाओं से वर्जित जीवन जीएँ तथा
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