Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 164
________________ तरह भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग के कवि थे । इस युग की सभ्यता 'पाश्र्वाभ्युदय' भाषा की पौढ़ता की दृष्टि से अद्वितीय काव्य है। और संस्कृति साहित्य में ही नहीं, अपितु ललित, वस्तु, स्थापत्य आदि यह और बात है कि आचार्य जिनसेन के शास्त्रज्ञपण्डित ने उनके कवि विभिन्न कलाओं में परिपूर्णता के साथ व्यक्त हुई है । आचार्य जिनसेन को अवश्य ही परास्त किया है । फलत: इसमें पाण्डित्य के अनुपात (द्वितीय) इस युग के श्रेष्ठ कवि थे और इन्होंने समय की बाह्य में कवित्व कम पड़ गया है । कालिदास की अवमानना के उद्देश्य से वास्तविकता, अर्थात् सभ्यता का चित्रण तो किया ही है, साथ ही उसकी लिखा गया होने पर भी यह काव्य उलटे ही कालिदास की काव्ययता अन्तरंग चेतना का भी जिसे हम संस्कृति कह सकते है; मनोहारी वर्चस्विता का विस्तारक बन गया है। समाहार प्रस्तुत किया है। कालिदास की काव्यत्रयी पर जैन टीकाएँ - डॉ० रविशंकर मिश्र महाकवि कालिदास की काव्यत्रयी "रघुवंश महाकाव्यम्, विद्यमान तत्कालीन संस्कृत साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों पर अपनी लेखनी कुमारसम्भवम्, मेघदूतम'' अपने-अपने काव्यादर्शों के अप्रतिम आइने हैं। चलाकर उस कृति के विषय को अपनी भाषा में निबद्ध कर टीका या वृत्ति रघुवंशम् महाकाव्य जहाँ कवि के अभीष्ट आदर्शों को नितान्त कान्तासम्मित या अवचूरि के रुप में प्रस्तुत करना ही अपना जीवन-व्रत बना लिया था। शैली में चित्रित कर भारतीय संस्कृति का अम्लान मुखरीकरण है, वहाँ इन विद्वान् जैन टीकाकारों का मुख्य ध्येय था -- संस्कृत कुमारसम्भवम् महाकाव्य एक ऎसा धार्मिक आख्यान जिसमें सर्वोत्कृष्ट नैतिक साहित्य-जगत् में लब्धप्रतिष्ठ कवियों की रचनाओं की अपनी सुललित, मूल्यों की गरिमा एवं हमारी भारतीय संस्कृति का सनातन सन्देश है । वास्तव सुग्राह्य एवं सरल संस्कृत भाषा में व्याख्या कर उसे जन-सामान्य के लिए में नारी के प्रति भारतीय संस्कृति के अमर सन्देश को अभिव्यंजित करता आत्मसात करने योग्य बनाना -- जिससे समाज का प्रत्येक वर्ग उन हुआ यह महाकाव्य मानो हाथ उठाकर कह रहा है कि शारीरिक सुन्दरता रचनाओं को समझ सके, हदयंगम कर सके और उनमें वर्णित आदर्शों एवं ही नारी की सर्वोत्कृष्ट सम्पत्ति नहीं है, साथ ही आध्यात्मिक सौन्दर्य के प्रति नैतिक मानवीय मूल्यों को अपने जीवन में सहजतया उतार सके । इस आत्म-समर्पण कोई पराजय नहीं है । काव्यत्रयी का तीसरा मेघदूतम् सुकार्य को करते समय इन जैन टीकाकारों की सूक्ष्मेक्षिक दृष्टि सम्बन्धित खण्डकाव्य एक ऐसी वर्णनात्मक कारुणिक कविता है जो मानव एवं प्रकृति ग्रन्थ के व्याख्यायन पर ही सुस्थिर रहती थी, न कि इस ग्रन्थ के जैन या का अद्वैत स्थापित करती हुई कामरुप मेघ और कामपीड़ित यक्ष के माध्यम अजैन ग्रन्थकार जैसी संकीर्ण वैचारिक दृष्टि पर। यह एक महत्वपूर्ण बिन्दु से सम्पूर्ण जगत् को काम के पावन पीयूष-प्रवाह में निमज्जित कराती है। इन जैन मनीषियों के साम्प्रदायिक व्यामोह से परे होने का स्पष्ट परिचायक यही कारण है कि न केवल भारतीय साहित्य में इस काव्य को सर्वोत्कृष्ट है। और अतिमूल्यवान गीतिकाव्य माना जाता रहा है बल्कि विश्व-साहित्य का महाकवि कालिदास की इस लोकग्राह्य एवं सार्वजनीन काव्यत्रयी सर्वोत्कृष्ट गीतिकाव्य (Lyric) माना गया है। अपने सम्पूर्ण रचना-क्रम में (रघुवंशम्, कुमारसम्भवम्, मेघदूतम्) की और अधिक महाकवि कालिदास कमोबेश एक गीति-कार, एक गीति-लेखक के रुप में सामान्यजन-ग्राह्य एवं बालसुलभ बनाने के उद्देश्य से इन जैन टीकाकारों अधिक उभर कर आते हैं। ने इस काव्यत्रयी पर अनेक टीकाओं की रचना की हैं । यद्यपि यह विषय यही कारण है कि महाकवि कालिदास की काव्यत्रयी की प्रसिद्धि अभी और अधिक गहन शोध की अपेक्षा रखता है, फिर भी हमारे इस और लोकप्रियता ने सदैव समकालीन एवं परकालीन साहित्यकारों, काव्यकारों, उल्लेख में काव्यत्रयी के तीनों काव्यों पर किन-किन जैन टीकाकारों ने टीकाकारों, व्याख्याकारों को अपनी ओर सहजतया आकर्षित किया है और अपनी टीकाएँ या वृत्तियाँ लिखी हैं, वे टीकाएँ या वृत्तियाँ अद्यतन प्रकाशित उनके मन को मोहा है । "हर अच्छी चीज की चाहत कौन नहीं करता''- हैं या कि अप्रकाशित हैं, वे टीकाएँ किन-किन ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हमारी इस सर्वथा निजी धारणा अनुसार ही सम्भवत: इस काव्यत्रयी की ओर और सुरक्षित हैं तथा उनका किन-किन ग्रन्थसूचियों में उल्लेख है आदि टीकाओं और व्याख्याओं की रचना-परम्परा परवान चढ़ी। उल्लेखनीय है विभिन्न महत्वपूर्ण शोधपरक बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत करना ही अभिप्रेत है कि संस्कृत साहित्य में जैन साहित्यकारों, काव्यकारों, गीतकारों, नाटककारों, ताकि इस दिशा में और भी अधिक शोध का पथ प्रशस्त हो सके। व्याख्याकारों और टीकाकारों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में मुनि चारित्रवर्धनगणि जैसे अनेक स्वनामधन्य विद्वान् रघुवंशम् :जैन टीकाकार हुए हैं, जिन्होंने अपनी स्वतंत्र और नवीन रचनाओं की अपेक्षा रघुवंशम् महाकाव्य महाकवि कालिदास की प्रौढ़तम प्रतिभा की Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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