Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 165
________________ १२६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ प्रसूति समझा गया है । लोकप्रियता में यह महाकाव्य अनुपमेय है । उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्र की ग्रन्थ-संख्या २८२९ पर इस टीका का जानकारी अनुसार इस महाकाव्य पर अब तक लगभग चालीस टीकाएँ भिन्न- उल्लेख प्राप्त होता है । भिन्न कालों में विभिन्न टीकाकारों द्वारा रची गयी मिलती हैं ।' इनमें से १०. मुनि श्री मलयसुन्दरसूरि ने भी रघुवंशम पर एक टीका निम्नलिखित टीकाएँ जैन टीकाकारों द्वारा रची गयी हैं, जिनका उल्लेख लिखी है।५ । विमलगच्छ उपाश्रय अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थों के अनेक स्रोतों में मिलता है - सूचीपत्र में ग्रन्थ-संख्या२९ पर इस टीका का उल्लेख प्राप्त होता है। १.सोलहवीं शती में खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनभद्रसूरि के शिष्य मनिश्रीचारित्रवर्धन ने "शिशुहितैषिणी' नाम से एक टीका लिखी है, कमारसम्भवम : जिसकी हस्तलिखित प्रतियाँ विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में सुरक्षित है। महाकाव्य पद्धति की यह अपने युग की सर्वश्रेष्ठ रचना है, २. मनि श्री मुनिप्रभगणि के शिष्य श्री धर्ममरु ने वि.सं. 1748 जिसका केन्द्रीय काव्य-तत्त्व है- शिव और पार्वती का विवाह जो अपने मूल में रघुवंशम् पर टीका लिखी, जिसका उल्लेख भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूना, भाव में पुरुष तथा प्रकृति के मंगल-मिलन का प्रतीक है, जिसमें दैविक डेला उपाश्रय भण्डार अहमदाबाद तथा टी. ऑफ्रेक्ट द्वारा संकलित केटालॉगरम लौकिक, स्वर्ग-भर्त्य, त्याग-प्रेम और तप-विलास का अपूर्व सामंजस्य के भाग प्रथम (पृष्ठ ४८७) में उपलब्ध होता है । समाहित है । इस महनीय महाकाव्य पर विविध जैन टीकाकारों द्वारा लिखी ३. खरतगच्छ के आचार्य श्री जयसोम उपाध्याय के सुशिष्य गई निम्नलिखित टीकाओं या वृत्तियों का उल्लेख विविध सन्दर्भो में प्राप्त मुनिश्री गुणविनय के रघुवंशम् पर “विशेषार्थबोधिका' नामक टीका की होता है . रचना वि.सं. १६४४ में की है। इस टीका का उल्लेख विभिन्न ग्रन्थ- १. खरतरगच्छ के मनि श्री चारित्रवर्धनगणि ने कुमारसम्भवम् पर भण्डारों के सूचीपत्रों में मिलता है । यद्यपि 'जैन ग्रन्थावली' में इस टीका “कमार तात्पर्य' नामक बोधगम्य टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख के रचनाकार का नाम 'गुणविजय' दिया गया है, जो सम्भवत: मुद्रण की टी. ऑफेक्ट द्वारा संकलित केटालॉगस केटालॉगरम के भाग प्रथम के पृष्ठ अशद्धि के कारण हआ है, ऐसा जिनरत्नकोशकार ने भी स्पष्ट किया है। ११० पर प्राप्त होता है। ४. विक्रम संवत् १६९२ में खरतरगच्छ के आचार्य श्रीसकलचन्द्र २. उपकेशगच्छ के मुनि श्रीक्षमामेरु के सुशिष्य मुनि मतिरत्न ने के सुशिष्य मुनि श्रीसमयसुन्दर ने रघुवंशम् पर "अर्थालापनिका" नामक वि.सं. १५७४ में कुमारसम्भवम् महाकाव्य के सात सर्गों पर एक 'अवचरि" टीका लिखी है । इस टीका की मूल हस्तलिखित प्रति कुल १४५ पत्रों में की रचना की है। इस अवचूरि का उल्लेख डॉ० पीटर्सन द्वारा संकलित डेला उपाश्रय भण्डार अहमदाबाद में सुरक्षित है । भण्डारकर इंस्टीट्यट पूनाके हस्तलिखित गुन्थ-संग्रह द्वितीय की प्रस्तावना ५. आचार्य श्री रामविजय जी के सुशिष्य मुनि श्री जियगणि ने के पष्ठ ५४ पर प्राप्त होता है। रघुवंशम् पर टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख डेला उपश्रय भण्डार ३. तपागच्छ के आचार्य श्री रामविजयगणि के सुशिष्य मुनि अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची में, टी. ऑफेक्ट द्वारा संकलित विजयगणि ने कुमार सम्भवम् महाकाव्य पर "कुमारसम्भववृत्ति' नामक एक केटालॉगस के केटालॉगरम में तथा विमलगच्छ उपाश्रय भण्डार अहमदाबाद एक टीका लिखी है। यह टीका भी महाकाव्य के मात्र सात सर्गों तक ही के सूचीपत्र में प्राप्त होता है। सीमित मिलती है । अनेक ग्रन्थ-भण्डारों के सूचीपत्रों में इसका उल्लेख प्राप्त ६. मुनि श्री सुमति विजय जी ने रघुवंशम् पर "सुगमान्वया" होता है । नामक एक टीका लिखी है । डॉ. व्हूलर द्वारा संकलित एवं भण्डारकर ४. खतरगच्छ के मुनिश्रीजिनसमुद्रसूरि ने भी कुमारसम्भवम् के इंस्टीट्यूट पूना में संरक्षित ग्रन्थ-भण्डार के सूचीपत्र एवं जैन ग्रन्थावली जैसे मात्र सात सर्गों पर एक टीका लिखी है। अन्य सन्दर्भ स्रोत्रों से इस टीका की जानकारी मिलती है११।। ५. दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनि श्री धर्मकीर्ति ने इस महाकाव्य पर ७. मुरि श्री हेमसूरि द्वारा रघुवंशम् पर लिखी गई एक टीका की एक टीका लिखी है । इस टीका का उल्लेख पूना से ईसवी सन १९२८ जानकारी मिलती है । इस टीका की मूल हस्तलिखित प्रति जैसलमेर भण्डार में प्रकाशित 'बृहत्टिपण्णिका' नामक जैन-ग्रन्थ सूची की ग्रन्थ-संख्या ५३० की ग्रन्थ संख्या १०७८ पर सुरक्षित एवं संरक्षित है । जिन रत्नकोश में पर प्राप्त होता है । भी इस टीका का उल्लेख प्राप्त होता है।२।। ६. मुनि श्री कल्याणसागर ने भी कुमारसम्भवम् पर एक वृत्ति ८. तपागच्छ के आचार्य श्री शान्तिचन्द्रगणि जी के सुशिरू मुनि लिखी है । इस वृत्ति का उल्लेख अहमदाबाद के ग्रन्थ-भण्डार के सूचीपत्र श्रीरत्नचन्द्रगणि ने रघुवंशम् पर एक टीका लिखी है। टी. ऑफेक्ट द्वारा में प्राप्त होता है२२ ।। संकलित केटालॉगस केटालॉगरम के तीसरे संस्करण के पृष्ठ १०४ पर इस ७. बड़ा उपाश्रय बीकानेर के महिमभक्ति के इकतीसवें बण्डल में टीका का उल्लेख मिलता है । भण्डारकर इंस्टीट्यूट पूरा के ग्रन्थ- भण्डार कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर लक्ष्मीवल्लभकत एक टीका का उल्लेख प्राप्त में इस टीका की प्रति उपलब्ध है । होता है । इस टीका की प्रति भी उसी बण्डन में संगृहित है। ९. रघुवंशम् पर ही रचित किसी अज्ञातनाम टीकाकार द्वारा रचित ८. मुनि श्री जिनचन्द्रसूरि ने भी कुमारसम्भवम् महाकाव्य पर एक "पंजिका'' नामक एक टीका का उल्लेख जिनरत्नकोश में मिलता है । टीका लिखी है२४ । इस टीका का उल्लेख अहमदाबाद के सचीपत्र में प्राप्त ज्ञात सन्दभों एवं उल्लेखों के अनुसार यह टीका किसी अज्ञातनाम जैन होता है। टीकाकार द्वारा ही रची गयी है। विजयधर्म लक्ष्मी ज्ञान-भण्डार आगरा के Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306