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अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता
१३५ के कथन करने की भाषा-शैली । जैन दार्शनिकों ने 'अनेकान्त' एवं हुए उन्होंने कहा है - हे गौतम! धर्मास्तिकाय द्रव्य दृष्टि से एक है, 'स्यात्' दोनों शब्दों का एक ही अर्थों में प्रयोग किया है। इन दोनों शब्दों इसलिए वह सर्वस्तोक है। साथ ही धर्मास्तिकाय में प्रदेशों की अपेक्षा के पीछे एक ही हेत् रहा है और वह है - वस्तु की अनेकान्तात्मकता। असंख्यात् गुण भी हैं ।२२ अधर्मास्तिकाय आकाश आदि द्रव्य दृष्टि से यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती है और एक और प्रदेश दृष्टि से अनेक हैं। एक-अनेक के सिद्धान्त को और स्याद्वाद से भी । अत: स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों ही एक हैं। भी सरल तरीके से इस प्रकार समझा जा सकता है- मान लें राम एक दोनों एक ही सिक्के दो पहलू हैं । अन्तर है तो इतना कि एक प्रकाशक व्यक्ति है । उसकी ओर इशारा करते हुए हम कई लोगों से पूछते हैंहै तो दूसरा प्रकाश्य है, एक व्यवहार है तो दूसरा सिद्धान्त । यह कौन है ? हमारे इस प्रश्न के उत्तर में क्रमश: प्रत्येक व्यक्ति कहता
है - पहला-राम जीव है । दूसरा-राम मनुष्य है। तीसरा-राम क्षत्रिय है। एक और अनेक
चौथा-राम मेरा पिता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरों में विभिन्नता जैन दर्शन ने अपनी तत्त्वमीमांसा में यह प्रतिपादित किया है है, फिर भी वे सब सत्य हैं । प्रथम व्यक्ति राम को एक पूर्ण द्रव्य के कि वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं, किन्तु किसी वस्तु के अनन्त धर्मों को रूप में देखता है । दूसरा पयार्य के रूप में । तीसरा भी पर्याय के रूप जानना हमारे लिए सम्भव नहीं है ? अनन्त को तो कोई सर्वज्ञ ही जान में तथा बाकी के उत्तरदाता और अधिक सूक्ष्मता से पर्याय के भिन्न-भिन्न सकता है, जिसे पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि रहती है। सामान्यजन तो अनन्त रूपों को देखते हैं । अत: प्रथम व्यक्ति को राम कहने का अधिकार है धर्मों में से कुछ धर्मों को अथवा एक धर्म को ही जानते हैं। जैन दर्शन किन्तु राम मनुष्य नहीं है, कहने का अधिकार नहीं है । इसी तरह दूसरे की भाषा में कुछ को यानी एक से अधिक धर्मों को जानना प्रमाण है व्यक्ति को 'राम मनुष्य है' कहने का अधिकार है, किन्तु राम जीव नहीं तथा एक धर्म को जानना नय है। इस प्रकार नय न प्रमाण के अन्तर्गत है, कहने का अधिकार नहीं है, क्योंकि राम में जीव एवं मनुष्यत्व दोनों आता है, न अप्रमाण के । जैसे समुद्र का एक अंश न समुद्र है और विद्यमान हैं । इस तरह हम देखते है कि द्रव्यार्थिक रूप में जीव में न असमुद्र बल्कि समुद्रांश है, उसी प्रकार नय प्रमाणांश है ।१६ नय को एकता है, परन्तु पर्यायार्थिक दृष्टि से अनेकता है। परिभाषित करते हुए कहा गया है - प्रमाण से स्वीकृत वस्तु के एक देश का ज्ञान कराने वाले परामर्श को नय कहते हैं ।१७
नित्यता और अनित्यता आचार्य प्रभाचन्द्र कहा है - प्रतिपक्ष का निराकरण करते सत् के विषय में विद्वानों में मत-भिन्नता देखी जाती है। कोई हए वस्तु के अंश को ग्रहण करना नय है ।१८ प्रमाण, नय और दुर्नय इसे नित्य मानता है तो कोई अनित्य । इस सम्बन्ध में वेदान्त दर्शन के भेद को स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने 'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' अपरिवर्तनशीलता को स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन परिवर्तनशीलता में लिखा है१९ - वस्तु का कथन तीन प्रकार से होता है - 'सदेव' अर्थात् को। यहाँ जैनदर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु नित्य और अनित्य सत् ही है, 'सत्' अर्थात् सत् है, 'स्यात् सत्' अर्थात कथंचित् सत् है। दोनों है । गुण की दृष्टि से वस्तु में नित्यता देखी जाती है और पर्याय सत् ही है में भाषा में निश्चयात्मकता आ जाने से अन्य धर्मों का निषेध की दृष्टि से अनित्यता । यथा- आम्रफल हरा रहता है किन्तु कालान्तर हो जाता है । "सत् है' में अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता रखकर कथन में वह पीला हो जाता है, फिर भी वह रहता आम्रफल ही है । वस्तु की अभिव्यक्ति होती है। "स्यात् सत् है' में सत् को किसी अपेक्षा से का पूर्व पर्याय नष्ट होता है और उत्तर पर्याय उत्पन्न होता है किन्तु वस्तु माना गया है, क्योंकि वह 'स्यात्' पद से युक्त है। उपर्युक्त तीनों कथनों का मूल रूप सदा बना रहता है। अत: सत्य नित्य भी है और अनित्य में पहला प्रकार दुर्नय है, दूसरा प्रकार नय तथा तीसरा प्रकार प्रमाण भी है। मिट्टी का एक घड़ा जो आकार, स्वरूप आदि से ही विनाशशील यानी अनेकान्त है । नय ज्ञाता का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। एक ही लगता है, क्योंकि वह बनता और बिगड़ता रहता है । घड़े का अस्तित्व वस्तु के विषय में अनेक दर्शकों के अनेक दृष्टिकोण होते हैं, जो परस्पर न तो पहले था और न बाद में रहेगा। किन्तु मूल स्वरूप में मिट्टी मौजूद मेल खाते हुए प्रतीत नहीं होते तथापि उन्हें असत्य नहीं कहा जा थी और घड़े के बनने के बाद भी तथा घड़े के नष्ट हो जाने पर भी मौजूद सकता, क्योंकि उनमें भी सत्य का अंश रहता है।
रहेगी। अत: प्रत्येक वस्तु नित्य एवं अनित्य है। जैन दर्शन यह मानता है कि प्रत्येक वस्तु में एकता तथा दीपक के विषय में भी ऐसी धारणा है कि इसमें अनित्यता अनेकता है। जीव-द्रव्य की एकता और अनेकता का प्रतिपादन करते होती है, क्योंकि वह बुझ जाता है। दीपक के विषय में अन्य दर्शनों हए महावीर ने कहा है - सोमिल! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ। ज्ञान और की भी यही धारणा है। लेकिन जैन दर्शन का कहना है कि अग्नि या दर्शन की दृष्टि से मैं दो हूँ। न बदलने वाले प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय तेज की दो पर्यायें होती हैं - प्रकाश और अंधकार । जब एक पर्याय हूँ, अवस्थित हूँ। बदलते रहने वाले उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक हूँ।२१ नष्ट होती है तो दूसरी पर्याय आती है। प्रकाश के नष्ट होने पर अंधकार इसी प्रकार अजीव-द्रव्य की एकता और अनेकता का स्पष्टीकरण करते आता है और अंधकार के नष्ट होने पर प्रकाश आता है। पर्यायें बदलती
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