Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 185
________________ १४६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ राजीमती धिक्कारते हुए रथनेमि से कहती है कि हे रथनेमि तू यदि ज्ञाताधर्मकथा में थावच्चापुत्र का वर्णन है जो अपनी माता का साक्षात इन्द्र भी हो तब भी मैं तेरा वरण नहीं कर सकती हूँ। वह उन्हें एकमात्र पुत्र था । पुत्र का संकल्प जानने पर उसकी माता थावच्चा स्वयं क्रोध, मान, माया, लोभ का निग्रह करने तथा इन्द्रियों को वश में करने श्रीकृष्ण के पास जाती है और उनसे छत्र, मकट और चामर प्रदान करने का उपदेश देती है । उसके दृढ़ चरित्र का ही परिणाम था कि रथनेमि का निवेदन करती है जिससे वे अपने पुत्र का अभिनिष्क्रमण संस्कार को अपनी भूल का एहसास होता है और वे सुस्थिर चित्त होकर पुनः सम्यक्रूपेण कर सके ।११ इस तरह के अनेक उदाहरण जैन ग्रन्थों में तप मार्ग का अवलम्बन ग्रहण करते हैं। भरे पड़े हैं । इन प्रमाणों से स्त्रियों के योगदान का मूल्यांकन किया जा ऐसी घटनाओं का अत्यधिक महत्त्व होता है । व्यक्ति के सकता है । आचरण से ही किसी धर्म या पंथ का प्रचार-प्रसार होता है तथा वह जैनधर्म के चतुर्विध संघ में भिक्षुणी-संघ एवं श्राविका संघ का लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनता है । आचरण से ही सांस्कृतिक परम्परा अपना विशिष्ट महत्त्व है। संसार त्याग कर तप-तपस्या का पथानुसरण विकसित होती है, अन्यथा तो वह कोरा किताबी ज्ञान बनकर रह जाती। करने वाली भिक्षणियों एवं संसार में रहकर घर-गृहस्थी का भार संचालन राजीमती का आचरण एक ऐसा आदर्श है जो कई शताब्दियों के बाद करने वाली श्राविकाओं ने जैन परम्परा के विकास में महत् योगदान दिया आज भी हमें प्रेरित कर रहा है। है। जैन आचार्यों ने संघ को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों की जैन परम्परा एवं आदर्शों को अक्षुण्ण रखने में स्त्रियों का व्यवस्था की । सभी प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से स्पष्ट है कि नियमों अनुपम योग था । संघ में प्रवेश लेने के समय पत्नी एवं माता की के पालन के सम्बन्ध में भिक्षु-भिक्षुणियों में कोई भेद नहीं किया गया। अनुमति आवश्यक थी । यदि वे अपने पुत्रों-पतियों को सहर्ष अनुमति जैन भिक्षुणियाँ उन नियमों के पालन में कसौटी पर खरी उतरीं। उनके न देतीं तो जैन संघ में भिक्षु-भिक्षुणियों की इतनी अधिक संख्या न द्वारा नियमों का उल्लंघन किया गया हो - इसकी कोई स्पष्ट सूचना ग्रन्थों होती। अपने एकमात्र पुत्र तक को वे भिक्षु बनाने में कोई अवरोध नहीं से नहीं प्राप्त होती । सुकुमालिका १२, काली' आदि भिक्षणियों के कुछ बनती थीं - यदि माता एवं पत्नी के स्नेह को तौलने का कोई तराजू होता उदाहरण अवश्य हैं, परन्तु वे अपवादस्वरूप हैं । ज्ञाताधर्मकथा में तो उस पर तौल कर उनके त्याग के अवदान का अनुमान लगाया जा सुकुमालिका का जो वृत्तान्त दिया गया है, वह महाभारत के प्रसिद्ध नारी सकता है । युवती कन्याओं का पूरा भविष्य सामने मुँह बाये खड़ा रहता पात्र द्रौपदी के पूर्वभव से सम्बन्धित है । द्रौपदी का पाँच पुरुषों के साथ था, वृद्ध माताओं का जर्जर शरीर अवरोधक का काम कर सकता था, विवाह का पूर्व कारण क्या था - कथा के माध्यम से इस पर प्रकाश परन्तु इन युवती कन्याओं एवं वृद्ध माताओं के समक्ष जैन परम्परा के डाला गया है । वस्तुत: यह घटना अपवादस्वरूप ही है - अन्यथा ग्रन्थों आदर्श एवं मान्यताएँ थीं जिसके शनै:-शनै: विकास का उत्तरदायित्व भी में वर्णित प्राय: सभी भिक्षुणियाँ त्याग-तपस्या की जीवन्त प्रतिमाएँ उन्हीं पर था । नारियों ने अपने गुरुतर दायित्व का मूल्यांकन किया। दिखायी पड़ती हैं। ये भिक्षणियां ध्यान एवं स्वाध्याय में लीन रहकर उन्होंने अपने सांसारिक सुखों के आगे उन आदर्शों एवं मान्यताओं को चिन्तन-मनन किया करती थीं । अन्तकृद्दशा में यक्षिणी आर्या के प्रश्रय प्रदान किया जो अक्षुण्ण थीं तथा निरन्तर प्रवाहमान थीं। सान्निध्य में पद्मावती' तथा चन्दना आर्या के सान्निध्य में काली" आदि जैन धर्म के नियमों से अवगत श्रावक-पत्नियों ने परिवार की भिक्षणियों को ग्यारह अंगों का अध्ययन करने वाली बताया गया है। परम्परा को अक्षुण्ण रखा । वे स्वयं धर्म में श्रद्धा रखती थीं तथा अपने इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा१६ में सुव्रता और द्रौपदी को ग्यारह अंगों में पत्रों एवं पतियों को प्रोत्साहन भी देती थीं। पति के प्रतिकूल होने पर निष्णात बताया गया है। जैन भिक्षणियों की विद्वत्ता के प्रमाण हमें बौद्ध भी उससे अविरक्त न रहने वाली पत्नी ही प्रशंसनीय मानी गई थी। ग्रन्थों से भी होते हैं । थेरी गाथा की परमत्थदीपनीटीका में भद्राकुण्डलकेशा१७ श्रावक आनन्द की पत्नी शिवानन्दा का ऐसा ही आदर्श चरित्र उपासकदशांग तथा नंदुत्तरा८ का उल्लेख प्राप्त होता है जिन्होंने क्रमश: महान् बौद्ध में वर्णित है ।" इसी ग्रन्थ में चुलनीपिता का उल्लेख है। देवोपसर्ग से भिक्षु सारिपुत्र एवं महामौद्गल्यायन के साथ शास्त्रार्थ किया था। ये विचलित होने पर इसकी माता ने ही उपदेश देकर धर्म में दृढ़ रहने को भिक्षुणियाँ तर्कशास्त्र में निष्णात थीं। प्रोत्साहित किया। इसी प्रकार सुरादेव की पत्नी धन्या एवं चुल्लशतक ध्यान एवं स्वाध्याय के क्षेत्र में ही नहीं, तपस्या के क्षेत्र में भी की पत्नी बहला का वर्णन है जिन्होंने अपने पतियों की देवोपसर्ग से जैन भिक्षणियाँ प्रशंसा की पात्र थीं । अन्तकृद्दशा में भिक्षणी पद्मावती रक्षा की तथा सुस्थिर मन से धर्म में दृढ़ रहने का उपदेश दिया। इन द्वारा उपवास, बेला, तेला, चोला, पंचोला से लेकर पन्द्रह-पन्द्रह दिन स्त्रियों की अपनी प्रशंसनीय भूमिका के कारण ही सकडालपुत्र की पत्नी की एवं महीने-महीने तक की विविध प्रकार की तपस्याएँ करने के अग्निमित्रा को धर्म सहायिका, धर्मवैद्या, धर्मानुरागरक्ता, समसुखदुःख उल्लेख हैं । इसी ग्रन्थ में भिक्षुणी काली की तपस्या का भी वर्णन है। सहायिका कहा गया है । चुलनीपिता की माता को देव एवं गुरु के रत्नावली तप करने के पश्चात् आर्याकाली का शरीर माँस और रक्त से सदृश पूजनीय कहा गया है ।" मर्यादा की रक्षा हेतु माताएं अपने रहित हो गया था, उनके शरीर की धमनियाँ प्रत्यक्ष दिखायी देती थीं, एकमात्र पुत्र तक को संघ में भेजने को तत्पर रहती थीं। शरीर इतना कृश हो गया था कि उठते-बैठते उनके शरीर से हड्डियों की Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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