Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 160
________________ ९. खगेन्द्रमणिदर्पण १०. हयशास्त्र ११. कल्याणकारक १२. गौवैद्य मंगराज (कन्नड लिपि) अभिनवचंद्र सोमनाथ कीर्तिवर्मा इनमें से कुछ ग्रंथ सम्भवतः श्री अगरचंदजी नाहटा के व्यक्तिगत संग्रह में उपलब्ध हैं। मैं इस दिशा में सतत इनमें से कुछ ग्रंथ सम्भवत: श्री अगरचंद नाहटा के व्यक्तिगत संग्रह में उपलब्ध हैं। मैं इस दिशा में सतत प्रयत्नशील हूँ तथा खोज करने पर और भी अनेक आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका 'पार्श्वाभ्युदय' काव्य 2 जैनकाव्यों की महनीय परम्परा में आचार्य जिनसेन (द्वितीय द्वारा प्रणीत पार्श्वाभ्युदय काव्य की पांक्तेयता सर्वविदित है । आचार्य जिनसेन (द्वितीय) आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री को ऐतिहासिक कृति 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा ( खण्ड २)' के अनुसार श्रुतधर और प्रबुद्धाचार्यों के बीच की कड़ी थी। इनकी गणना सारस्वताचार्यों में होती है। यह अपनी अद्वितीय सारस्वत प्रतिभा और अपारकल्पना शक्ति की महिमा से 'भगवत्' जिनसेनाचार्य कहे जाते थे। यह मूलग्रन्थों के साथ ही टीका ग्रन्थों के भी रचयिता थे। इनके द्वारा रचित चार ग्रन्थ प्रसिद्ध है जय धवला टीका का शेष भाग, आदिपुराण' या 'महापुराण', 'पार्श्वाभ्युदय' और 'वर्द्धमानपुराण' । इनमें 'वर्द्धमानपुराण' या 'वर्द्धमान चरित' उपलब्ध नहीं है । आचार्य जिनसेन (द्वितीय) ईसा की आठवीं नवीं शती में वर्तमान थे। ये काव्य, व्याकरण, नाटक, दर्शन, अलंकार आचारशास्त्र, कर्मसिद्धान्त प्रभृति अनेक विषयो के बहुश्रुत विद्वान् थे। ये अपने योग्य गुरु के योग्यतम शिष्य थे। जैन सिद्धान्त के प्रख्यात ग्रन्थ 'षट्खण्डागम' तथा आसापाड के टीकाकार आचार्य बीरसेन (सन् ७९२ से ८२३ ई०) इनके गुरु थे। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्गों द्वारा सम्पादित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में भी उल्लेख है कि आचार्य जिनसेन, धवना टीका के कर्ता श्री वीरसेनस्वामी के शिष्य तथा उत्तरपुराण के कर्त्ता, श्रीगुणभद्र के गुरू थे और राष्ट्र कूट- नरेश जयतुंग एवं नृपतुंग, अपरनाम अमोघवर्स (सन् ८१५ से ८७७ ई०) के समकालीन थे । राजा आमोघवर्ष की राजधानी मान्य खेट में उस समय विद्वानों का अच्छा आयुर्वेद सम्बन्धी अन्यों की जानकारी प्राप्त हुई है। किंतु इस दिशा में सतत अनुसंधान और प्रर्याप्त प्रयत्न अपेक्षित है। उपर्युक्त विवेचन से यह तथ्य तो स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने भी अन्य आचार्यों की ही भांति आयुर्वेद साहित्यसृजन में अपना अपूर्व योगदान दिया है। अब आवश्यकता इस बात की है कि अनुसन्धान के द्वारा उस विलुप्तविशाल साहित्य को प्रकाश में लाकर आयुर्वेद साहित्य की श्रीवृद्धि की जाय और आयुर्वेद की दृष्टि से उसका उचित मूल्यांकन किया जाय। इससे आयुर्वेद जगत् में निश्चय ही जैनाचार्यों को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त होगा । Jain Education International डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव पहनी ही नहीं और आठ वर्ष की आयु में ही दिगम्बरी दीक्षा ले ली। इन्होंने अपने गुरू आचार्य वीरसेन की, कर्मसिद्धान्त-विषयक ग्रन्थ षट्खण्डागम' की अधूरी जयधवला' टीका को, भाषा और विषय की समान्तर प्रतिपादन शैली में, पूरा किया था और इनके अधूरे 'महापुराण' या 'आदिपुराण' को (कुल ४७ पर्व), जो 'महाभारत' से भी बड़ा है, इनके शिष्य आचार्य गुणभद्र ने पूरा किया था। गुणसेन द्वारा पूरा किया गया अंश या शेषांश 'उत्तरपुराण' नाम से प्रसिद्ध है। पंचस्तूपसंघ की गुर्वावलि के अनुसार वीरसेन के एक और शिष्य थे विनयसेन। आचार्य जिनसेन (द्वि०) ने दर्शन के क्षेत्र में जैसी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है, वैसी ही अपूर्व मनीषा काव्य के क्षेत्र में भी प्रदर्शित की है। इस सन्दर्भ में इनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की संस्कृत काव्यकृति 'पार्श्वाभ्युदय' उल्लेखनीय है। प्रस्तुत काव्य के अन्तिम दो श्लोकों से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त राष्ट्रकूट वंशीय नरपति अमोघवर्ष के शासनकाल में इस विलक्षण कृति की रचना हुई । श्लोक इस प्रकार हैं : इति विरचितमेतत्काव्यमावेव मे बहुगुणमपदोष कालिदासस्य काव्यम् । मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशाङ्क भुवनभवतु देवः सर्वदाऽमोघवर्षः || श्री वीरसेनमुनिपादपयोजभृङ्गः श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् । तच्चो दितेन जिनसेनमुनीश्वरेण काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ अर्थात् प्रस्तुत 'पार्श्वाभ्युदय काव्य कालिदास कवि के अनेक समागम था। 'जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश' के सन्दर्भानुसार आचार्य जिनसेन आगर्भ दिगम्बर थे; क्योंकि इन्होंने बचपन में आठ वर्ष की आयु तक लंगोटी गुणों से युक्त निर्दोष काव्य 'मेघदूत' को आवेष्टित करके रचा गया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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