Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 144
________________ स्याद्वाद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास १०५ समन्तभद्र की आप्तमीमांसा पर टीका लिखी और लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय वस्तुनिहित धर्मों की प्रतीति को "सत्", "असत्" "न सत् न असत्" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की । इन्होंने अपने ग्रन्थ लघीयस्त्रय के जैसे विरोधाभासी पदों से विज्ञापित किया जाता रहा है, क्रमश: इस प्रथम श्लोक में ही तीर्थङ्करों की स्याद्वादी के रूप में श्रद्धापूरित स्तुति प्रकार की अभिव्यक्ति ने वैचारिक मतभेद और ऊहापोह की स्थिति को कर स्याद्वाद को जैन दर्शन का अभिन्न अङ्ग बनाने की सफल चेष्टा जन्म दिया। “सत्ता" अथवा "द्रव्य" में इस द्विधाभाव के कारण अपने की।५३ निर्णय को "सत्य" एवं दूसरे को "असत्य" कहने के प्रति आग्रह बना। इसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय के अन्य आचार्यों-वादीभसिंह एक ही तत्त्व में विविध धर्मों की अभिव्यक्ति के कारण इस प्रकार के (विक्रम की आठवीं शती), विद्यानन्दि (वि.९वीं शती), देवसेन वसुनन्दि आग्रह-पूर्वाग्रह के लिये अवकाश भी था । अत: कलह का वातावरण (१०-११वीं शती), सोमदेव (वि.११वीं शती) आदि द्वारा भी क्रमशः बना । महावीर स्वामी ने अपने तत्व-चिंतन के प्रकाश में समसामयिक "स्याद्वादसिद्धि", "अष्टसहसी", "नयचक्र', "आप्तमीमांसा वृत्ति" वृत्तियों पर मनन किया, सामाजिक सुख-शांति, साम्प्रदायिक सद्भाव, "स्याद्वादोपनिषद्” जैसे अतिविशिष्ट ग्रन्थों की रचना की गई। विक्रम वैचारिक समन्वय के लिये इस प्रकार की प्रवृत्ति को घातक माना और की ११-१२ वीं शती में हुए परमारकालीन जैनाचार्य प्रभाचन्द्र ने यह उद्घोष किया कि वस्तु अनन्तधर्मी है । अत: वस्तु में निहित सभी "प्रमेयकमलमार्तण्ड' (परीक्षामुख टीका) एवं "न्यायकुमुदचन्द्र' धर्मों की अनुभूति और उसका युगपत् समग्र प्रकाशन सम्भव नहीं। (लघीयत्रय टीका) जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन कर दार्शनिक यद्यपि किसी वस्तु को लेकर विचार करने वाले सभी लोगों का धरातल पर स्याद्वाद एवं अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित करने का सफल अनुभूतिजन्य निर्णय सत्य हो सकता है, अत: किसी के निर्णय की न उद्योग किया। उनके इस प्रकार के प्रयत्न को भी परिस्थितिजन्य कहा तो अवमानना की जा सकती है, न ही उसे असत्य ठहराया जा सकता जा सकता है । सम्प्रदाय में बढ़ रही भेद की प्रवृत्ति पर, स्याद्वाद सिद्धान्त है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को अपने निर्णय को सत्य बताने का अधिकार के प्रति लोगों की आस्था जगाकर अथवा “अनन्तधर्मात्मकं वस्तु" का है तथा दूसरों के निर्णय के प्रति सम्मान व्यक्त करना कर्तव्य और इसके स्मरण कराकर, अंकुश लगाने का यह महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हो सकता है। निर्वाह के लिये प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निर्णयात्मक अभिव्यक्ति से पूर्व दिगम्बर सम्प्रदाय के ही ऐक अत्यन्त प्रतिभाशाली आचार्य विमलदास "स्यात्' पद का संयोग अपेक्षित है । प्रथमत: तो उन्होंने इसके लिये ने विचारों के समन्वय की महत्त्वपूर्ण चेष्टा की । उनकी रचना पूर्व प्रचलित चतुर्भङ्गों को ही अपना लिया; उनमें “स्यात्" पद का "सप्तभङ्गीतंरगिणी' नव्य शैली की अकेली एवं अनूठी प्रस्तुति है।५४ प्रयोग कर सत्यपरक बना दिया । कालान्तर में अभिव्यक्ति की समग्रता इस अवधि में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनेक युग-प्रधान आचार्यों के लिये तीन अन्य नयों को उसमें समाविष्ट कर “सप्तभङ्गी" बना ने भी अनेकान्त एवं “स्याद्वाद" से सम्बद्ध अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की दिया। विक्रम की द्वितीय-तृतीय शती में “सप्तभङ्गी" का ही अधिक रचना का उपयोगी प्रयास किया। इस दृष्टि से हरिभद्र (वि० ८वीं शती) प्रभाव रहा । धर्म के दर्शन के रूप में क्रमिक परिणति के साथ ही साथ के "अनेकान्तजयपताका" एवं "स्याद्वादकुचोद्य- परिहार"; वादिदेवसूरि आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि के प्रयत्न से समसामयिक आवश्यकता (१२वीं शती) के "स्याद्वादरत्नाकर"; रत्नप्रभसूरि (१३वीं शती) के के अनुरूप साम्प्रदायिक सद्भाव, वैचारिक एवं दार्शनिक समन्वय के स्याद्वादरत्नाकरावतारिका"; मल्लिषेण (१४वीं शती) के "स्याद्वादमञ्जरी' दार्शनिक जगत् में “अनेकान्त' एवं "स्याद्वाद" को प्रतिष्ठित किया जैसे ग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है । ये ग्रन्थ अपने विषय के गया। आचार्य प्रभाचन्द्र, मल्लिषेण, विमलदास आदि ने इसे और महत्त्वपूर्ण सार्थक प्रयास हैं। अधिक पल्लवित एवं पुष्पित किया। इस प्रकार “सप्तभङ्गी नय" इसके अनन्तर १८वीं शती में यशोविजय ने “स्याद्वादमञ्जरी" "स्याद्वाद" का और "स्याद्वाद” तथा “अनेकान्तवाद"जैन दर्शन का पर “स्याद्वादमंजूषा” नामक टीका लिखी और यशस्वतसागर ने पर्याय बन गया। "स्याद्वादमुक्तावली' की रचना की। “अनेकान्तवाद" एवं "स्याद्वाद" सन्दर्भ ग्रन्थ पर विवक्षा अथवा ग्रन्थ रचना का क्रम आज भी प्रवर्धमान है और धार्मिक सहिष्णुता तथा सामाजिक सुख-शान्ति, वैचारिक समन्वय के लिये इसे १. न्यायदीपिका, सं० पण्डित दरबारीलाल कोठिया, वोर सेवा मन्दिर अत्यन्त उपयोगी कहा जा सकता है। ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ४, सहारनपुर १९९५, अध्याय ३, श्लोक७६, इस प्रकार जैन धर्म दर्शन की स्याद्वादी अवधारणा से यह "अनेके अन्ता धर्माः सामान्य विशेष पर्याया: गुणाः यस्येति सुविदित है कि "स्याद्वाद” न केवल जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण निधि है, सिद्धाऽनेकान्तः। वरन् विचार-समन्वय, सहिष्णुता, समता बोध आदि की दृष्टि से समस्त २. (i) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ५.३८, "गुण पर्यायवद्रव्यम्" भारतीय दर्शन में इसका विशिष्ट स्थान है और यह भारतीय संस्कृति को (ii) भगवतीसूत्र, ७,२,५ जैन धर्म दर्शन की अनुपम देन है। भारतीय विचारणा में प्रारम्भ से ही ३. "अनेकश्चासो अन्तश्च इति अनेकान्तः" रत्नाकरावतारिका, पण्डित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306