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च अवक्तव्यं च" इन तीन नवीन नवों का समावेश कर उसे "सप्तभङ्गी" बना दिया। इस प्रकार जहां बुद्ध का विभज्यवादी सिद्धान्त अपने मूल रूप में यथावत् रहा, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त का चतुर्भङ्ग" संशयवाद का उद्भावक बना, एवं महावीर स्वामी का विभज्यवादी सिद्धान्त "उत्पाद व्यय - ध्रौव्य" की अनुभूतिजन्य "अनेकान्त" के माध्यम से विकसित होता हुआ "स्याद्वाद" के रूप में, वस्तु के अभिप्रेत धर्म के साथ ही सन्निहित अन्य धर्म का भी सूचक, सत्यपरक अभिव्यक्ति का समुचित
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जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७
माध्यम बन गया ।
जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, जैनियों की स्वाद्वादी अवधारणा महावीर के "अहिंसा" एवं "सूनृत सत्य" विषयक सिद्धान्त के अनुकूल थी। दूसरे की भावना को कर्म से ठेस पहुंचाने की तो बात ही अलग, मन एवं वाणी से भी कष्ट देना दोषप्रद था । उनके युग में धार्मिक दार्शनिक सिद्धान्तों को लेकर प्रायः विविध सम्प्रदाय के लोग परस्पर वाद-विवाद करते रहते; अपने पक्ष का येन-केन प्रकारेण मण्डन तथा दूसरे के सिद्धान्तों का खण्डन ही विविध सम्प्रदायों का लक्ष्य था। ऐसी परिस्थिति में सम्प्रदायों में परस्पर सौमनस्य एवं सद्भाव स्थापित करने तथा स्वयं के संघ में सम्मिलित विविध मत बुद्धि के अनुयायियों में सौहार्द स्थापन के लिये महावीर स्वामी ने इस स्याद्वाद सिद्धान्त का अत्र के रूप में प्रयोग किया और जिसके माध्यम से उन्हें धार्मिक एवं सामाजिक सुख-स्थापन में बल मिला। महावीर के इस स्याद्वाद सिद्धान्त की समय-समय पर युगसापेक्ष व्याख्या और पुनर्व्याख्या हुई, बहुविध वृद्धि एवं समृद्धि हुई ।
ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट है कि महावीर स्वामी के बाद जैन धर्म का इतिहास बहुत कुछ जैन संघ एवं दर्शन का इतिहास है। मौर्य शासक चन्द्रगुप्त जैन धर्मावलम्बी था। उसके समय में आयोजित संगीति से जैन धर्म संघ में अनेक मानकों की स्थापना हुई, दिगम्बर एवं श्वेताम्बर इन दो सम्प्रदायों में जैन संघ का विभाजन हुआ। इन दोनों सम्प्रदायों ने महावीर स्वामी की शिक्षाओं की समसामयिक व्याख्या का प्रयास किया; स्वयं जैन सम्प्रदाय में हो रहे उपविभाजन से समन्वयी वृत्ति की वृद्धि की ओर आकर्षण बढ़ा यद्यपि अशोक बौद्ध था, परन्तु सम्भव है उसके "समवायो एव साधुकिति अत्रमंत्रस धमं सुणारू [च] सुसुंसेर च" जैसे उद्घोष से जैनियों में सद्भाव स्थापन के प्रवास को अधिक बल मिला हो तथा जैन धर्मावलम्बी धर्म सहिष्णु शासक खारवेल के प्रोत्साहन ४९ से भी इस प्रकार की वृत्ति को प्रोत्साहन मिला हो ।
प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में जहां स्याद्वादी अभिव्यक्ति में "चतुर्भङ्ग" के प्रति विशेष आग्रह है, वहीं प्रथम शती ईसा पूर्व के अन्तिम चरण में "सप्तभङ्गी नय" का प्राधान्य लक्षित होता है विक्रम की प्रथम शती हुए आचार्य कुन्दकुन्द के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ "पञ्चास्तिकाय” को हम इसके प्रमाण के रूप में उद्धृत कर सकते हैं आचार्य कुन्दकुन्द ने इसमें
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न केवल सप्तभङ्गों का विश्लेषण किया है वरन् "सप्तभङ्ग" पद का भी सुस्पष्ट उल्लेख किया है।
विक्रम की तीसरी से आठवीं शताब्दी तक जैन धर्म के विविध पक्षों की दार्शनिक व्याख्यायें की गई। अनेक अभिनव प्रतिमानों की स्थापना हुई । कतिपय जैन विचारकों ने इस अवधि-विशेष को जैन दर्शन के क्षेत्र में "अनेकान्त स्थापन काल" के रूप में अभिहित किया है। इस युग के प्रारंभिक चरण में नागार्जुन, वसुबन्धु, असङ्ग, दिङ्नाग जैसे बौद्ध दार्शनिकों का उदय हुआ, उनके प्रभाव से स्वयं बौद्ध एवं बौद्धेतर दार्शनिक शाखाओं में खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया में तीव्रता आई है। इसी अवधि में जैन आचार्यों में आचार्य समन्तभद्र एवं सिद्धसेन ने अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं तर्कणाशक्ति से महावीर स्वामी की शिक्षाओं की तर्क-सम्मत व्याख्या करते हुए अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की, सिद्धान्तों के शुष्क बौद्धिकवादी युग में वितण्डावाद से परे हट समन्वय एवं सहिष्णुता को बढ़ावा देने का प्रयत्न किया और इसके लिये अनेकान्त पोषित स्याद्वाद को माध्यम बनाया ५१
आचार्य समन्तभद्र (विक्रम की द्वितीय तृतीय शती) ने "आप्तमीमांसा", "युक्त्वनुशासन", "वृहत्स्वयम्भूस्तोत्र" जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना कर उनमें स्याद्वाद के सप्तभङ्गी सिद्धान्त की अनेक दृष्टियों से विवेचना की है। उन्होंने एकान्तवाद की आलोचना एवं अनेकान्तवाद की प्रस्थापना का प्रयास किया। स्याद्वाद के लक्षण को प्रमाणित किया। उन्होंने "सुनय" "दुनैय" की व्याख्या की तथा अनेकान्तवाद को और वैज्ञानिक एवं प्रभावी बनाया ।
विक्रम की ४५वीं शती में हुए जैन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने 'नय' और 'अनेकान्तवाद' की मौलिक व्याख्या कर "स्याद्वाद" एवं "अनेकान्तवाद" को न केवल जैन दर्शन के लिए अनिवार्य बना दिया, वरन् अनेकान्तवाद के अभाव में जागतिक व्यवहार को ही असम्भव कहा। इस दृष्टि से उनका यह वक्तव्य - "जेण विणा लोगस्स ववहारोवि सव्वथा न निव्वइये । तस्य भुवणेक गुरुणो णमोऽणेगंतवायरस ।"
अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। उन्होंने समसामयिक दार्शनिक वादों को जैन दर्शन में समन्वित करने का प्रयत्न किया, उसे और अधिक व्यापक बनाया प्रचलित विविध सम्प्रदायों में समता बोध एवं सहिष्णुता के विकास का प्रयास किया। सम्भव है उनके इस प्रकार के प्रयास में धर्मसहिष्णु एवं समन्वयवादी गुप्त शासकों का भी सहयोग मिला हो। यद्यपि इस प्रकार के मत प्रतिष्ठापन के लिये पुष्ट प्रमाणों की अपेक्षा है ।
विक्रम की आठवीं से सत्रहवीं शती तक का समय " प्रमाणस्थापन काल" के रूप में अभिहित किया जाता है। इस युग में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के प्रमुख आचार्यों
ने अनेकान्त एवं स्याद्वाद पर अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की आचार्य अकलङ्कदेव ने
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