Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 141
________________ १०२ "स्वात् " शब्द पर समग्र रूप से विचार करने पर इसका "कथंचित्" अर्थ लेना ही अधिक वस्तुपरक लगता है। इस प्रकार “स्यात्” का अर्थ होगा- "सापेक्षिक दृष्टिकोण" । स्यादस्त्येव का अर्थ होगा स्वरूपादि की अपेक्षा वस्तु है ही मज्झिम निकाय के राहुलोवादसुत्त में राहुल को उपदेश देते हुए स्वयं बुद्ध भी "सिया", जिसका आशय "स्यात्" से लिया जा सकता है, का प्रयोग किया है, १२ जहाँ वह "तेजो धातु' के दो सुनिश्चित भेदों के संज्ञान में सहायक सिद्ध हुआ है । "स्यादस्ति" वाक्य में जहाँ " अस्ति" द्रव्य अथवा उसके गुण-विशेष के अस्तित्व का प्रतिपादन करता है, वहीं " स्यात्" पद उस द्रव्य में समुपस्थित नास्तित्व और अन्य अनेक धर्मों के रहने की ओर संकेत करता है। जैन चिन्तन के अनुसार कोई भी प्रत्यय तभी सत्य हो सकता है जब वह बाह्य वस्तु के धर्म को अभिव्यक्त करे ।" अतः "स्याद्वाद" भाषा का वह निर्दोष प्रकार है जिसके द्वारा अनेकान्त वस्तु के परिपूर्ण और यथार्थ स्वरूप के अधिकाधिक समीप पहुँचा जा सकता है। जैन विद्या के आयाम खण्ड- ७ जैन दर्शन का यह सुस्पष्ट मन्तव्य है कि जगत् का कोई भी द्रव्यविशेष बहुधर्मी है । अतः उसका निःशेष ज्ञान "केवलिन्” को छोड़कर किसी सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। स्वयं 'केवलिन्' भी जिस पर्याय को उसने कल भविष्यत् रूप से जाना था, आज उसे वर्तमान रूप से जानता है, अतः केवलिन का ज्ञान भी काल भेद से बदलता रहता है क्योंकि प्रत्येक "द्रव्य" पर्याय की दृष्टि से परिवर्तनशील है । १४ द्रव्य के सम्पूर्ण ज्ञान के बावजूद यदि सुपात्र नहीं है तो उसे समग्रज्ञान की अनुभूति नहीं कराई जा सकती। अतः समग्रशान की अनुभूति और उसकी युगपत् समग्र अभिव्यक्ति अत्यन्त कठिन या प्रायः असम्भव है। किसी भी नय में प्रयुक्त "स्यात्" पद से वस्तु के उन धर्मों की ओर परोक्ष संकेत होता है जिनका उस "नय" विशेष में उल्लेख तक नहीं होता, ताकि व्यक्ति के मन में वस्तु की अनेकधर्मिता की प्रतीति बनी रहे । वह एकाङ्गी निर्णय से बचा रह सके, दूसरे व्यक्ति मत सम्प्रदाय के अनुभूतिजन्य निर्णय के प्रति भी यथावश्यक सम्मान व्यक्त करे । , ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध साहित्य के सामान्य अध्ययन से महावीर स्वामी का काल दार्शनिक चिन्तन-मनन एवं बौद्धिक क्रान्ति के युग के रूप में उभरकर सामने आता युग के रूप में उभरकर सामने आता है। इस युग में प्रवृत्तिमार्गी ब्राह्मण परम्परा, यज्ञ-प्रथा, अन्धविश्वास आदि पर अनेक आक्षेपों के प्रचलन को बढ़ावा मिलता है, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, जड़-चेतन आदि के बारे में बौद्धिक व्याख्या के प्रयत्न का सूत्रपात होता है। इन पर चिन्तन-मनन तथा इनको लेकर परस्पर वाद-विवाद करते विविध सम्प्रदायों का संदर्भ मिलता है। जैन एवं बौद्ध वाङ्मय में ऐसे २६ सम्प्रदायों की अलग-अलग लम्बी सूची उपलब्ध होती है और ब्राह्मण धर्मसूत्रादि से उसकी पुष्टि भी होती है। अपनी दृष्टि एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को लेकर पृथक् पृथक् समुदायों एवं सम्प्रदायों में बँटे लोगों का संघी, गणि, गणाचार्य के रूप में अपना अलग-अलग नेता होता है। इन नेताओं में अपने मत के प्रचार-प्रसार के निमित्त लोगों को अपनी बुद्धि एवं चिन्तन से प्रभावित कर अपना अनुयायी बनाने की होड़ दिखाई "अनेकान्तवाद" एवं "स्याद्वाद" को ऋषभदेव से सम्बद्ध देती है। इस प्रकार के प्रयास में यदा-कदा कलह के वातावरण का भी १७ अब यह जिज्ञासा सहज स्वाभाविक है कि "अनेकान्तवाद" एवं “स्याद्वाद’” की यह अवधारणा जैन धर्म-दर्शन की अभिनव देन है अथवा इसी प्रकार की किसी पूर्व अवधारणा का संशोधित परिवर्धित रूप। इस प्रकार के प्रश्नों पर विचार करते हुए ऐसा लगता है कि यदि परम्परावादी दृष्टि से विचार किया जाय तो अनेकान्तवाद की उत्पत्ति को आदि तीर्थक्रूर ऋषभदेव से सम्बद्ध किया जा सकता है, जबकि कतिपय विद्वानों ने इसे २३वें तीर्थङ्क पार्श्वनाथ के उपदेशों में देखने की चेष्टा की है परन्तु अनेक विद्वानों ने इसके अविष्कार का श्रेय महावीर स्वामी को दिया है। Jain Education International किया जाना तो निःसंशय नहीं लगता; परन्तु वस्तु के स्वरूप भेद, उनकी प्रतीति की विविधता, एक में अनेक, अनेक में एक होने तथा एक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म की अवस्थिति अथवा देखने की प्रवृत्ति का परिचय तो ऋग्वैदिककाल से ही मिलने लगता है। ऋग्वेद के "नासदीय सूक्त' को इसके प्रमाण के रूप में उद्धृत किया जा सकता है, जिसमें मूल सत्ता के संदर्भ में "सत्", "असत्” एवं “अनुभव” ("न सत्" "न असत्" अर्थात् अवक्तव्य) इन तीन पक्षों को प्रकाशित किया गया है। इसी प्रकार उपनिषदों के अनेक मंत्रों में सत्ता से सम्बद्ध परस्पर विरोधी पक्षों को स्मरण किया गया है । श्वेताश्वतर उपनिषद् में 'क्षर', 'अक्षर', 'व्यक्त' एवं 'अव्यक्त' धर्मों का उल्लेख है। इसी प्रकार 'वस्तु' या 'सत्ता' के अणु से भी छोटे अथवा महत्तम होने का प्रसंग मिलता है। "तदेजति तन्नेजति", "सद्सद्वरेण्यम्" "सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेचा द्वितीयन्तद्वैकआहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् तस्मादसतः सज्जायत ।।२१ जैसे विषम पक्षों का परस्पर द्विधाभाव लक्षित होता है । कुछ उपनिषदों में तो "न सन्नचासत्" ( अनुभय अर्थात् अवक्तव्य ) का भी प्रसंग है २२। इन संदर्भों से प्रायः सुविदित है महावीर से पहले वैदिक ब्राह्मण परम्परा में सत्ता अथवा द्रव्य में परस्पर विरोधी पक्षों को प्रतीति एवं अभिव्यक्ति की परम्परा सुज्ञात थी । अतः पार्श्वनाथ के चिन्तन में द्रव्य में अनेकता की अनुभूति तथा उसे अनेक रूपों में अभिव्यक्ति करने की प्रवृत्ति रही हो तो असम्भव नहीं; यद्यपि स्याद्वादियों के रूप में आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की स्तुति की गई है २४ किन्तु इसे स्याद्वाद के रूप में विकसित करने तथा व्यापक आधार देने का श्रेय महावीर स्वामी को ही दिया जाना अधिक समीचीन लगता है और तत्कालीन बौद्धिक क्रान्ति की परिस्थिति से इसकी संगति भी बिठाई जा सकती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:

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