Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 140
________________ स्याद्वाद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास डॉ० सीताराम दुबे धार्मिक परिवेश में कायक्लेशप्रधान जैन धर्म जहाँ अपनी एक विशेष उपकरण से अणु अथवा सूक्ष्म रूप में दिखाई देता है, वहीं अहिंसावादी अपरिग्रही नीतियों के लिये विख्यात है; वहीं दार्शनिक दूसरे उपकरण से तरङ्ग के रूप में लक्षित होता है । अत: जब द्रव्य परिप्रेक्ष्य में वह अपने "अनन्तधर्मकं वस्तु" तथा "अनेकान्तात्मकार्थ विशेष ही गुण-पर्याय, सामान्य-विशेष आदि की दृष्टि से बहुधर्मी है; तब कथनं स्याद्वाद:" जैसे सिद्धान्तों से निष्पन्न अनेकान्त एवं स्याद्वाद के विविध द्रव्यों के संयोग से बने जगत् के बारे में कहना ही क्या ? कारण प्रख्यात है । वस्तुत: जैन धर्म के इन दो आधार स्तम्भों को भी विविध घटकों अथवा पदार्थों, गण-पर्याय, सामान्य-विशेष किसी न किसी रूप में उनके "अहिंसावाद" एवं "सूनृत सत्य' से आदि की दृष्टि से एकाधिक धर्म की सापेक्ष स्वीकृति ही अनेकान्तवाद प्रभावित एवं क्रमिक विकास का परिणाम मानना चाहिए । जैन धर्म के है; परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि जैन धर्म की यह अनेक-धर्मिता सामान्य अध्ययन से प्रायः सुस्पष्ट है कि इन दार्शनिक सिद्धान्तों को सर्वधर्मिता नहीं है। वस्तुओं में विविध धर्मों का परिलक्षण "मुण्डे मुण्डे दार्शनिक धरातल पर व्यापक रूप में प्रस्थापित करने का प्रारम्भ प्रथम- मतिर्भिन्ना" की तरह मात्र दृष्टिभेद, अपेक्षा-भेद अथवा मन पर निर्भर रहने द्वितीय शताब्दी ईसवी से हुआ और समय-समय पर १८वीं शती तक के कारण नहीं; वरन् वस्तुओं में अन्तर्निहित बहुधर्मिता भी है । अत: जैनाचार्यों ने अपने दार्शनिक चिन्तन एवं समन्वयी वृत्ति से इसे और जैनियों के इस अनेकान्तात्मवाद को वस्तुवाद, विशेषकर वस्तुसापेक्षवाद अधिक प्रभावी बनाने का प्रयत्न किया। इन पर अनेक दार्शनिक ग्रन्थों से अभिहित करना युक्ति संगत होगा। इसे अनेकान्तवाद, सापेक्षवाद की रचना की । अपने वर्णित रूप में स्याद्वादी सिद्धान्त का आज भी आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है। महत्त्व है; परन्तु इसका मूल बीज महावीर स्वामी की शिक्षाओं में ही अनेक दार्शनिक ग्रन्थों में “स्यात्" अव्यय को “अनेकान्त" सन्निविष्ट दिखाई देता है । इसके पूर्व वैदिक ब्राह्मण मान्यताओं तथा का द्योतक मानते हुए अनेकान्तवाद को ही स्याद्वाद कहा गया है; किन्तु समसामयिक बुद्ध के उपदेशों में वस्तुओं में विविध धर्मों एवं रूपों की जहाँ द्रव्य में एकाधिक धर्मों की स्वीकृति “अनेकान्तवाद" है; वहीं द्रव्य प्रतीति एवं उनकी अभिव्यक्ति की परम्परा लक्षित होती है। प्रस्तुत में "अनेकान्त" के अनुभूतिपरक ज्ञान की वाणी द्वारा अभिव्यक्ति शोधपत्र में अनेकान्त सम्बलित स्याद्वाद की उत्पत्ति, अभिप्राय एवं 'स्याद्वाद ।६ अत: “अनेकान्तवाद” एवं "स्याद्वाद' को क्रमश: प्रकाश्य विकास की व्याख्या का प्रयत्न किया गया है। एवं प्रकाशक, ज्ञान एवं अभिव्यक्ति आदि के रूप में स्वीकार करना लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन, बन्धन-मोक्ष अधिक तर्कसम्मत होगा । जैन दर्शन की दृष्टि में यह स्याद्वाद अनेकान्त भारतीय दर्शन की विचारणा के मूल बिन्दु हैं। इनके अस्तित्व, स्वरूप, के अभिव्यक्ति की यथेष्ट पद्धति है । इस प्रकार "उत्पादव्ययध्रौव्य गुणघटक मूल अथवा सञ्जात होने आदि के बारे दार्शनिक शाखाओं में विलक्षण परिमेय", "अनेकान्तवाद" एवं “स्याद्वाद" ये तीनों परस्पर मतभेद हैं । वेदान्त, सांख्य, मीमांसा आदि जहाँ सामान्य की सत्ता को अन्योन्याश्रित हैं । इन्हें जैन दर्शन के आधारभूत स्तम्भ के रूप में स्वीकार करते हैं, वहीं बौद्ध दर्शन विशेष की । वैशेषिक दर्शन सामान्य स्वीकार किया जाता है। प्रथम "उत्पादव्ययध्रौव्य'' त्रिलक्षण के कारण एवं विशेष दोनों की सत्ता को स्वीकार करते हुए उनको परस्पर स्वतन्त्र जहाँ द्रव्य में "अनेकान्त" की अनुभूति होती है वहीं "स्याद्वाद" के मानता है और समवाय के माध्यम से उन्हें सम्बद्ध बताता है । जैन दर्शन माध्यम से उस अनुभूति की तथ्यपरक प्रस्तुति की जा सकती है। यद्यपि वैशेषिक दर्शन की ही तरह सामान्य एवं विशेष की सत्ता को तो इस स्याद्वाद के व्युत्पत्तिपरक अर्थ, प्रयोजन आदि के बारे में स्वीकार करता है; किन्तु उसकी दृष्टि में दोनों परस्पर स्वतन्त्र न हो जैन दार्शनिकों में मतभेद है । कतिपय भारतीय दार्शनिकों ने इसे सापेक्ष हैं और यही जैन दर्शन का अपना वैशिष्ट्य है। इसके अनुसार अर्धसत्य का परिव्यापक और संशय का जनक कहा है। पंडित बलदेव जगत् विविध द्रव्यों का संघात है और द्रव्य "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य" उपाध्याय की दृष्टि में इसे संशयवाद के रूप में नहीं लिया जा सकता। विलक्षण युक्त होता है। गुण की दृष्टि से यह नित्य तथा पर्याय की दृष्टि वे इसका “सम्भव" अर्थ कर रहे प्रतीत होते हैं जबकि डा० नन्दकिशोर से परिवर्तनशील है । जीव द्रव्यार्थिक दृष्टि से शाश्वत और भावार्थिक देवराज ने “स्यात्" से "कदाचित्" का अभिप्राय लिया है। हीरालाल दृष्टि से अशाश्वत है । वस्तु अथवा द्रव्य में विविध गुणों की अवस्थिति जैन ने "स्यात्' को “अस्" धातु के विधिलिङ्ग का अन्यपुरुष स्वीकार आज के वैज्ञानिक प्रयोगों से भी सिद्ध है । क्वान्टम भौतिकी सिद्धान्त करते हुए “ऐसा हो' "एक सम्भावना यह भी है" जैसे दो आशयों की को इसके प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । एक अणु जहाँ पुष्टि की है ।१० परन्तु इन मतों के गुण-दोषों के विवेचन तथा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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