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स्याद्वांद की अवधारणा : उद्भव एवं विकास प्रसङ्ग मिलता है ।२८ इन नेताओं का अपने-अपने सिद्धान्तों के साथ सकता है । इसके अनन्तर और सम्भवत: इसके परिणामस्वरूप उनमें उल्लेख मिलता है, जिनमें बुद्ध, मक्खलि गोशाल, सञ्जय बेलट्ठिपुत्त, "स्व-पर" सिद्धान्त के विकसित होने तथा दूसरे के मत के प्रति भी पूरणकस्सप, पकुधकच्चायन, अजित केशकम्बलिन्, निगण्ठनाथपुत्त यथेष्ट सम्मान व्यक्त करने की प्रेरणा का अनुमान किया जाता है ।३८ का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।२९ बुद्ध अपने सूत्रकृताङ्ग के एक वक्तव्य - विभज्यवादी सिद्धान्त के लिये प्रसिद्ध थे। उन्होंने जड़-चेतन की नो छायए नो वि य लूसएज्जा माणं न सेवेज्ज पगासणं च। व्यावहारिक धरातल पर तर्कसम्मत व्याख्या करते हुए लोक-परलोक, न यावि पन्ने परिहास कुज्जा न यासियावाय वियागरेज्जा ।।''३९ आत्मा-परमात्मा आदि को अव्याकृत कहा।३० मंक्खलि गोशाल नियतिवादी में स्याद्वाद का प्रथम संदर्भ मिलता है । इसमें प्रयुक्त "न तथा सञ्जय बेलट्ठिपुत्त अज्ञानवादी सिद्धान्त के लिये प्रख्यात थे। यासियावाय" को "न चास्याद्वाद" के रूप में व्याख्यायित किया जाता पूरण कस्सप एवं पकुधकच्चायन दोनों अक्रियावादी थे, इसके बावजूद है। स्याद्वाद के प्राकृत रूप “सियावाओ"४० से इसकी बहुत सीमा तक इन दोनों के सिद्धान्तों में किञ्चित् भेद लक्षित होता है ।३१ अजित पुष्टि भी होती है। केशकम्बलिन् की उच्छेदवादी के रूप में प्रतिष्ठा थी ।३२ ।
“भङ्ग" की दृष्टि से विचार किया जाय तो भगवतीसूत्र के एक तत्त्वों की व्यवहार-सम्मत युगपरक व्याख्या करने वाले इस स्थल को छोड़कर, जहाँ तेइस भङ्गों का उल्लेख है, ४१ प्रारम्भिक जैन यग में प्रत्येक प्रबुद्ध चिन्तक द्रव्य, लोक-परलोक आदि के प्रति अपनी आगमों में प्राय: चार भङ्गों का ही प्रयोग हुआ है । अत: ऐसा अनुमान अनूभूतिपरक व्याख्या को अधिकाधिक सत्यपरक बनाने के लिये “सत्", होता है कि: "सत्" "असत्" "उभय", "अनुभय" ("अस्ति", "असत्", "अनुभय' का यथावश्यक प्रयोग करता दिखाई देता है। "नास्ति', "अस्ति नास्ति च" और "अवक्तव्यं") ये चार भङ्ग" ही गौतम बुद्ध के उक्त "विभज्यवाद" एवं "अव्याकृत' से इसका स्पष्ट मौलिक हैं और इन्हें ही प्रारम्भ में महावीर स्वामी ने अधिक महत्त्व संकेत मिलता है। सञ्जय बेलपित्त के "चतुर्भङ्ग" को इसके प्रमाण दिया।३ जिनसे क्रमश: “सात भङ्गों" का विकास हुआ, जिन्हें भगवतीसूत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। बुद्ध जहाँ लोक-परलोक आदि के उक्त तेइस भङ्गों में से छाँटा जा सकता है । यद्यपि भगवतीसूत्र में से सम्बद्ध प्रश्नों को "अव्याकृत" कह कर शालीनतापूर्वक टाल देते 'एक स्थल पर आत्मा के प्रसंग में स्वतन्त्र रूप से "सात भङ्गों" का हैं और उसे समस्याओं के समाधान के लिये अनुपयोगी बताते हैं, वहीं प्रयोग देखा जा सकता है । ५ सञ्जय बेलठ्ठिपुत्त फक्कड़ाना अंदाज में अपनी अज्ञता प्रकट करना ही कतिपय विद्वानों ने महावीर के "सप्तभङ्ग" को सञ्जय बेलट्ठिपुत्त अधिक उचित समझते हैं ।३३ जैन ग्रन्थों में बद्ध के इस प्रकार के वक्तव्य के चतुर्भङ्ग' से विकसित मानते हुए उनको भी संशयवादी सिद्ध करने पर यत्र-तत्र आक्षेप किया गया है और सञ्जय बेलट्ठिपुत्त की अन्धे के की चेष्टा की है,४६ परन्तु महावीर स्वामी को "संशयवादी' कहना रूप में भर्त्सना की गई है।३४
युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता ।४७ अनेक प्रसंगों से तो ऐसा अनुमान होता अभिव्यक्ति-कथन के बारे में महावीर स्वामी का मत इन दोनों है कि स्वयं उन्होंने सञ्जय बेलपित्त के “अज्ञान" अथवा "संशय" की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक लगता है । वे जड़- निवारण का सफल प्रयत्न किया था । वस्तुत: उनका स्याद्वादी सिद्धान्त चेतनादि के संदर्भ में अनेकान्त गर्भित "स्याद्वाद" का सहारा लेते हैं। "अज्ञान" अथवा "संशयवाद" का समाधानात्मक उत्तर हो सकता है। उनकी दृष्टि में द्रव्यों के संघात से बने जगत् एवं जागतिक तत्वों की
जहाँ तक सञ्जय के “चतुर्भङ्ग" से जैन धर्म के "सप्तभङ्ग" अपनी अलग-अलग स्वतन्त्र विशेषतायें हैं; उनमें विविध धर्मों का के विकसित होने की बात है, तो जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका समावेश होता है ; किन्तु व्यक्ति के ज्ञान की अपनी सीमा और अपेक्षा है कि प्राय: “चतुर्भङ्ग" प्रबुद्ध चिन्तकों के प्रश्नोत्तर की उपयुक्त पद्धति होती है। किसी सामान्य व्यक्ति के लिये किसी वस्तु के धर्मों का सम्पूर्ण थी। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में ही तीन भङ्गों का स्पष्ट उल्लेख है। ज्ञान और एक साथ उनकी समग्र अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । यद्यपि वस्तु अथवा सत्ता के “सत्'-"असत्" जैसे विषम-पक्षों की उपनिषदों प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अनुभूति एवं तज्जनित अभिव्यक्ति सत्य; किन्तु में बहुशः विवक्षा की गई है । अत: स्वयं सञ्जय का “चतुर्भङ्ग' विकास अपेक्षा भेद से एकाङ्गी होती है। अत: उन्होंने वस्तुस्थिति के अधिकाधिक का परिणाम है, जिसे महावीर ने अपनी चिन्तन-परक अनुभूति की सत्यपरक व्याख्यान के लिये अभिव्यक्ति के पूर्व “स्यात्" पद के प्रयोग अभिव्यक्ति के लिये उपयोगी समझा, उसे "स्यात्' पद के प्रयोग से पर बल दिया और “विभज्यवाद" को भी उपयोगी माना ।५ इस दृष्टि वस्तु की बहुधर्मिता का संप्रकाशक, सत्यसापेक्ष, अधिकाधिक वस्तुपरक से "स्याद्वाद” को “सापेक्षवाद', अनेकान्तवाद एवं विभज्यवाद भी एवं व्यावहारिक बना दिया । क्रमश: उन्हें “चतुर्भङ्गों' की सीमा का भी कहते हैं ।३६
भान हुआ, उन्हें लगा कि कुछ ऐसी अनुभूतियाँ भी हैं जिनकी अभिव्यक्ति भगवतीसूत्र में वर्णित महावीर स्वामी के चित्र-विचित्र पुंस्कोकिल इन चतुर्भङ्गों' के प्रयोग से सम्भव नहीं, अत: उन्होंने "चतुर्भङ्ग" में विषयक स्वप्न को स्याद्वाद के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया जा "अस्ति च अवक्तव्यं च" "नास्ति च अवक्तव्यं च, “अस्ति च नास्ति
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