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४. स्वाध्याय- ज्ञान प्राप्ति के लिये अप्रमादी होकर प्रयास करना । वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इसके पाँच भेद कहे गये हैं । ११४ ५. व्युत्सर्ग
त्याग करना ।
हृदय कोमल एवन जाता है। मन में समर्पण एवं भक्ति का अंकुर से सर्प आदि का विष दूर हो जाता है उसी प्रकार मन्त्र जप से आत्मा प्रस्फुरित होता है। से पाप दूर हो जाते हैं। किसी मन्त्र का बार-बार चिंतन-मनन करना जप ३. वैयावृत्य तथ - नि:स्वार्थ भाव से गुरु, वृद्ध, रोगी, कहा जाता है। उत्तम मन्त्र ही जप का विषय है। आचार्य हरिभद्र कहते ग्लान आदि की सेवा-शुश्रूषा करना । है गुरु तथा देव की साक्षी में पद्मासन में स्थित होकर चिंतनीय विषय में मन लगा कर दंश आदि उपद्रव को सहता हुआ साधक जप करें । १२७ मनीषियों ने शान्त एवं एकान्त-स्थल जप के लिए उत्तम कहे हैं। इसके लिये शुद्ध जलयुक्त नदी, सरोवर, कूप, वापी आदि का देह एवं वस्तुओं के प्रतिम मत्व बुद्धि का और लताओं के मण्डप आदि उत्तम स्थान कहे गये हैं । १२८ जप के लिये हाथ का अंगूठा अंगुलियों के पोरों पर अथवा मनकों पर चलता है, दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थित रहती है तथा अन्तरात्मा में प्रशांत भाव या चित्त वृत्ति से जप के विषय, अक्षर एवं तद्गत अर्थ आलम्बन के साथ जप किया जाता है ।१२९ जप से मोह, इन्द्रिय-लिप्सा, काम-वासना तथा कषायों का शमन होता है, कर्मों की निर्जरा होती है और शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है। प्रतिज्ञापूर्वक जप करने वाले के व्यक्तित्व में ऐसी पवित्रता आ जाती है कि किसी समय अगर वह जप नहीं भी करता, तो भी उसकी अन्तर्वृत्ति जप पर ही केन्द्रित रहती है । १३० जप के फलस्वरूप भाव धर्म, अन्तः शुद्धिमूलक, अध्यात्म धर्म निष्पन्न है । १३१
भगवान् महावीर ने भी १२ वर्ष उत्कृष्ट तप की साधना की थी। इस दीर्घ कालावधि में उन्होंने केवल ३५९ दिन आहार ग्रहण किया था।११५ फलाकांक्षा से रहित किया गया तप संसार क्षय का कारण और निर्वाण प्राप्ति का अचूक साधन है ।११६
दान परमार्थ की सिद्धि के लिये दान, शील, भावना और तप ये चार प्रमुख कारण बताये गये हैं ।९१७ आचार्य हरिभद्र ने दान और परोपकार रहित सम्पत्ति को लोकविरुद्ध कहा है । ११८ सुपात्र को दिया हुआ दान उसी प्रकार फलदायक होता है जैसे गाय को दिया हुआ तृण दूध में बदल जाता है ।११९ दान से व्यक्ति के महानतम लक्ष्य परमार्थ की सिद्धि तो होती है दान से यश का संवर्धन भी होता है, लोकप्रियता मिलती हैं, दारिद्र और क्लेश का नाश होता है। कार्य करने में अक्षम, अन्ध, दु:खी, रोग-पीड़ित, निर्धन और जिनकी जीविका का कोई सहारा नहीं है ये सब दान के अधिकारी हैं । १२१ अनुकम्पाजन्य दान प्रशस्त चित्त का जनक, ममत्व का नाशक और शुद्ध पुण्य के अभ्युदय में प्रधान कारण है । १२२ शुद्ध दान देने वाला मनुष्य शाश्वत सुख सम्पत्ति को प्राप्त करता है । १२३ आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार के दानों का उल्लेख किया है१. ज्ञान दान २. अभय दान ३. धर्मोपग्रह दान । ज्ञान-दान सब दानों में श्रेष्ठ माना गया है । १२४ आचार्य ने अपने पोष्यवर्ग के लिए कोई असुविधा न पैदा करते हुए तथा अपने हितों का भी ध्यान रखते हुए दीन-दुखी लोगों को दान देने की सलाह दी है। इस प्रकार उन्होंने दान के संदर्भ में व्यावहारिकता और दूरदर्शिता का परिचय दिया है। व्यक्ति के दान से आश्रित जन, परिजन और भृत्य वर्ग को कष्ट न हो यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने कही है। कुछ पुण्य-लोभी भावुक दानी होते हैं । वे स्वयं तो दानी बनते हैं किन्तु उनके आश्रित जन असुविधायें झेलते हैं। आचार्य हरिभद्र ने ऐसे दान को प्रशंसनीय नहीं माना है । मनुस्मृति में भी अपने परिवार को पीड़ित कर केवल सुख की इच्छा से दान देने वाले को दुःख का भागी कहा है । १२५
मन, वचन, काया से परिशुद्ध तथा जैनाचार के अनुकूल धार्मिक जनों को दिया गया अशन, पान, वस्त्र, औषधि आदि धर्मोपप्रदान है। 194
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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
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जप योग की प्रारम्भिक अवस्था में जप का विशेष महत्त्व है। जप अध्यात्म है, जप देवता के अनुग्रह का अंग है। जैसे मंत्र प्रयोग
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भावना अनुप्रेक्षा योग साधना में प्रवृत्त होने वाले साधक के लिये भावना का महत्त्व सबसे अधिक है मैत्री, करुणा, माध्यस्थ, प्रमोद आदि ४ भावनाओं का उपदेश देकर निवृत्ति एवं प्रवृत्ति धर्म का समन्वय करने के लिये भूमिका स्थापित की गई है। बहिर्भाव से अन्तर्भाव में रमण करना अनुप्रेक्षा है । साधक की इन्द्रियाँ तथा मन साधक को सर्वदा अपने मार्ग से विचलित करते हैं एवं उसके रागद्वेषादि में वृद्धि करते हैं। इन चंचल प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने के लिये जो चिन्तन किया जाता है उसे भावना कहा जाता है। जैन परम्परा में भावना के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुये कहा गया है कि दान, शील, तप, भावना ही धर्म है। इनसे संसार भ्रमण की समाप्ति की जा सकती है । १३२
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बन्धुत्व मैत्री भावना का सतत् प्रयास करने से साधक के मन में पवित्र भावों का उदय होता है। पवित्र भाव रूपी जल से साधक की द्वेष रूपी अग्नि शान्त हो जाती है। ३३ । बन्धुत्व की भावना से योगी का मन निष्कप बन जाता है । योगी अपनी वेदना, रोग एवं दुख-दर्द को भूल जाता है। जब वह अनित्यता का चिन्तन करता है, उससे वैराग्य भाव पैदा होता है और समस्त चंचल मनोवृत्तियां और बहुविध मनोकामनायें विलीन होने लगती हैं। इसी प्रकार प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणी जनों के प्रति प्रमोद भाव, दुखियों के प्रति करुणा का भाव, विरोधियों के प्रति माध्यस्थ (उपेक्षा) भावना साधक की साधना को आगे बढ़ती है । आचार्य कहते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि में प्रतिबन्धरहित सभी जवों पर जो मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना रखते हैं वे दृढ़ निश्चय वाले मोक्ष मार्ग की आराधना करने वाले
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